Book Title: Bhupendranath Jain Abhinandan Granth
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

Previous | Next

Page 133
________________ ९४ जैन विद्या के आयाम खण्ड-७ की चर्चा न कर उत्तराध्ययन में उपलब्ध कर्म सम्बन्धी विवरणों की चर्चा का विवरण भगवती में विस्तार से मिलता है यहाँ केवल एक ही गाथा करना चाहेंगे। उत्तराध्ययनसूत्र में ३३ वें अध्ययन को छोड़कर अन्य में इसका वर्णन है। अध्ययनों में जो कर्मसिद्धान्त सम्बन्धी चर्चायें मिलती हैं वे आचारांग अत: हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि उत्तराध्ययन में ३३वें और सूत्रकृतांग की अपेक्षा किंचित् विकसित प्रतीत होती हैं । किन्तु अध्ययन में यद्यपि कर्मसिद्धान्त का व्यवस्थित विवरण है फिर भी उनमें उन्हीं सब तथ्यों की चर्चा है जो सूत्रकृतांग में उपलब्ध होते हैं। परवर्ती साहित्य में और भी विस्तृत विवेचना की गई है । उदाहरण के कर्म कर्ता का अनुसरण करता है ।४५ सभी जीवों को अपने कर्म के लिए इसमें नामकर्म की दो शुभ और अशुभ-दो ही उत्तरप्रकृतियों का अनुसार फल भोगना पड़ता है । ६ कामभोगों की लालसा के कारण उल्लेख है जबकि आगे चलकर इसके ४२,६७,९३ एवं १०३ भेदों कर्मपरमाणुओं का आत्मा के साथ बन्ध होता है किन्तु जो रागादि भावों की चर्चा मिलती है। से रहित होता है उसे बन्ध नहीं होता है। कर्म अपने शुभाशुभ इससे स्पष्ट है कि उत्तराध्ययन के पश्चात् भी जैन कर्मसिद्धान्त अध्यवसायों एवं विपाकों के अनुसार पुण्य और पाप रूप होता है।८ का विकास होता गया। ये चर्चायें ऐसी हैं जो प्रकारान्तर से आचारांग और सूत्रकृतांग में भी उपलब्ध हैं । उत्तराध्ययन में कर्म को कर्म-ग्रन्थि, कर्मकंचुक, कर्मरज, स्थानांगसूत्र कर्मगरु. कर्मवन, आदि कहने के जो ठल्लेख उपलब्ध हैं। वे सब भी आचारांग, सूत्रकृतांग, ऋषिभाषित एवं उत्तराध्ययन की तुलना हमारे समक्ष नवीन तथ्य प्रस्तुत नहीं करते हैं । उत्तराध्ययन का मात्र में स्थानांग में कर्म-सिद्धान्त का विकसित रूप प्राप्त होता है। स्थानांग ३३वाँ अध्याय ऐसा है जिसमें आचारांग, सूत्रकृतांग, ऋषिभाषित की के आरम्भ में उल्लेख है कि इस जीवन या अगले जीवन में कर्मों का अपेक्षा कर्मसिद्धान्त के विकसित रूप मिलते हैं । इस अध्याय की फल अवश्य मिलता है। स्थानांग में देवताओं, नारकों, मनुष्यों आदि प्राचीनता के सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद है फिर भी यह अध्याय ई.पू. के कर्मफल के उपभोगकाल का निर्धारण करते हुए वर्तमान भव एवं का ही माना जाता है । ऋषिभाषित में जो अष्टकर्मग्रन्थि का उल्लेख अन्य भव में होने वाले कर्मफल विपाक'६ की चर्चा है । इसमें कर्म की आया है. इसकी भी विस्तृत व्याख्या उत्तराध्ययन में उपलब्ध है। अवान्तर प्रकृतियों से सम्बन्धित दो प्रकार के विवरण मिलते हैं । इसके आगम साहित्य में अष्टमूलप्रकृतियों और उनके अवान्तर भेदों की चर्चा द्वितीय स्थान के चतुर्थ उद्देशक५६ में अठों मूलप्रकृतियों का दो-दो करने वाला यह प्रथम ग्रन्थ है । सम्भवतः उत्तराध्ययन में ही सर्वप्रथम अवान्तर प्रकृतियों में ही वर्गीकरण है - देश एवं सर्व, ज्ञानावरणीय एवं अष्टकर्म प्रकृतियों को घाती और अघाती कर्म में वर्गीकृत किया गया दर्शनावरणीय की ,साता और असाता, वेदमीय कर्म की एवं दर्शन और है।५१ इसमें ज्ञानावरणीय की ५, दर्शनावरणीय की ९, वेदनीय की २ चारित्र, मोहनीय कर्म की। आयुष्य कर्म अद्धायुष्य (कायस्थिति की मोहनीय की २८, आयुष्य की ४, नाम कर्म की २, गोत्र की २ और आयु) और भवायुष्य (उसी भव की आयु), नाम कर्म-शुभ और अशुभ, अन्तराय कर्म की ५ उत्तरकर्मप्रकृतियों का उल्लेख है ।५२ उत्तर गोत्र कर्म-उच्च और नीच तथा अन्तराय कर्म -- प्रत्युत्पन्नविनाशि एवं कर्मप्रकृतियों के विवरण५२ की विशेषता यह है कि दर्शनावरणीय की पिहित-आगामिपथ दो प्रकार का बताया गया है। स्थानांग में ही अन्यत्र उत्तरप्रकृतियों के क्रम में आज की दृष्टि से अन्तर है। वेदनीय की साता- उपर्युक्त भिन्न ज्ञानावरणीय के ५५९, दर्शनावरणीय के ९६ एवं नोकषाय असाता दोनों के अनेक भेद बतायें गये हैं। मोहनीय कर्म के दर्शन एवं वेदनीय के ९५१ भेदों का उल्लेख है। प्रसंगवश वेदनीय कर्म की दो चारित्र मोहनीय दो भेदों में से चारित्र मोहनीय के उपभेद नोकषाय अन्य अवान्तर प्रकृतियो क्षुधा वेदनीय६२ और लोभ वेदनीय कर्म६३ का मोहनीय के ७ या ९ भेद बताये गये हैं । नाम कर्म के पहले शुभ और भी उल्लेख मिलता है। अशुभ भेद किये गये फिर इन दोनों के अनेक भेदों की सूचना दी गई। स्थानांग में उत्तर कर्मप्रकृतियों का वर्गीकरण यह इंगित में गोत्र कर्म के दोनों भेदों-उच्च और नीच के आठ-आठ भेद बताये गये उपलब्ध करता है कि वर्तमान पद्धति से भिन्न एक अन्य परम्परा भी उत्तर प्रकृतियों के वर्गीकरण की विद्यमान थी। उस वर्गीकरण में सरलीकरण इसमें मूल प्रकृतियों और उत्तरप्रकृतियों का वर्णन करने के दिखलाई पड़ता है। जैसे ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय के देश अर्थात पश्चात् प्रदेशों का परिमाण, क्षेत्र, काल और भाव का निरूपण है। अशत: और सर्व ऐसे दो भेद थे । इसी प्रकार आयुष्य कर्म की भी इसमें कर्म की मूलप्रकृतियों की अधिकतम और न्यूनतम वर्तमान जन्म की आयु और भविष्य में होने वाले जन्म की आयु के स्थिति की चर्चा है। इन कर्मप्रकृतियों की कालावधि के सम्बन्ध में एक विचार की दृष्टि से दो ही भेद किये जाते थे तथा अन्तराय कर्म का भी महत्त्वपूर्ण चर्चा यह है कि वेदनीय कर्म की जघन्य स्थिति एक विभाजन वर्तमान में प्राप्त वस्तु का विनाश और भविष्य में होने वाले अन्तर्महर्त५४ की बतायी गयी है वहाँ अन्यत्र १२ अन्तर्मुहर्त बतायी गयी लाभ के मार्ग में बाधा- ये दो भेद थे। उल्लेखनीय है कि कर्म प्रकृति के द्विविध वर्गीकरण में से मात्र वेदनीय की साता और असाता तथा गोत्र आत्मा के द्वारा कर्मपद्गलों के ग्रहण करने और उनकी संख्या कर्म की उच्च और नीच ही प्रचलित परम्परा में व्यवस्थित हैं । शेष के Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306