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प्राचीन जैनग्रन्थों में कर्मसिद्धान्त का विकासक्रम
अन्त:करण में व्याप्त लोभ, समस्त प्रकार की माया, अहंकार के विविध देखते हैं कि आचारांग और सूत्रकृतांग की अपेक्षा ऋषिभाषित में रूप और क्रोध का परित्याग करके ही जीव कर्मबन्धन से मुक्ति प्राप्त कर्मसिद्धान्त पर्याप्त रूप से विकसित अवस्था में मिलता है । कर्म, कर सकता है, सूत्रकृतांग में चारों कषायों को भी कर्मबन्धन के कारण अकर्म२६ की चर्चा के साथ-साथ शुभाशुभ कर्म की चर्चा३७ तथा के रूप में स्वीकार कर लिया गया है । बन्धन के कारणों की इस चर्चा शुभाशुभ कर्मों से अतिक्रमण की चर्चा ऋषिभाषित में ही सर्वप्रथम में सूत्रकृतांग में प्रकारान्तर से प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान और मिलती है । ऋषिभाषित ही ऐसा ग्रन्थ है जिसमें स्वर्ण और लोह-बेड़ी मैथुन से अविरति को भी कर्मबन्धन का कारण माना गया है ।२२ इस की उपमा देकर२९ पुण्य-पाप कर्म से अतिक्रमण की चर्चा है। सर्वप्रथम प्रकार चाहे स्पष्ट रूप से नहीं परन्तु प्रकारान्तर से उसमें मिथ्यात्व, अष्ट कर्मग्रन्थि की चर्चा करने वाला भी यही ग्रन्थ है । ऋषिभाषित में अविरति, प्रमाद और कषाय को योग के साथ बन्धन का कारण मान कर्म के ५ आदान या कारण३९ स्पष्ट रूप से उल्लिखित हैं। लिया गया हैं । अत: बन्धन के जिन पाँच कारणों की चर्चा परवर्ती इसमें यद्यपि कर्म की दस अवस्थाओं की चर्चा नहीं है फिर साहित्य में उपलब्ध है उसका मूलबीज सूत्रकृतांग में उपलब्ध है । यहाँ भी सोपादान, निरादान, विपाकयुक्त, उपक्रमित और अनुदित कर्मों का स्मरण रखना चाहिए कि कषायों की यह चर्चा 'जे कोहं दंस्सि से माणं विवरण उपलब्ध होता है। साथ ही उपक्रमित, उत्करित, बद्ध, स्पष्ट दस्सि' आदि के रूप में आचारांग में आ गयी है । सूत्रकृतांग की और निधत्त कर्मों के संक्षेप एवं क्षय होने एवं निकाचित कर्मों के अवश्य विशेषता यह है कि वह इन कारणों से कर्मबन्धन को स्वीकार करता ही भोगने का उल्लेख है।४३
ऋषिभाषित इस बात पर स्पष्ट रूप से बल देता है कि कोई कर्मसिद्धान्त के सन्दर्भ में सूत्रकृतांग इस बात को स्पष्ट रूप व्यक्ति स्वकृत शुभाशुभ कर्मों का ही फल भोगता है ।४२ से स्वीकार करता है कि व्यक्ति स्वकृत कर्मों के फल का ही भोक्ता होता इस प्रकार हम देखते है कि ऋषिभाषित के काल तक जैन है। वह न तो अपने कर्मों का विपाक दूसरों को दे सकता है न दूसरों कर्मसिद्धान्त पर्याप्त रूप से विकसित अवस्था को प्राप्त हो जाता है। के कर्मों का विपाक स्वयं प्राप्त कर सकता है।
भले ही इसमें अष्ट कर्मप्रकृतियों के अलग-अलग नामों का उल्लेख न कर्म के द्रव्य और भावपक्ष की इन नामों से चर्चा इसमें नहीं हो किन्तु अष्ट कर्मग्रन्थि का उल्लेख होने से यह माना जा सकता है कि मिलती है किन्तु 'कर्मरज'२५ और कर्म का त्वचा के रूप में त्याग जैसे कर्मों की अष्ट मूलप्रकृतियों की चर्चा उस युग तक आ चुकी था । यदि उल्लेखों से स्पष्ट रूप से हमें लगता है कि उसमें कर्म के द्रव्य पक्ष की हम कर्मसिद्धान्त की दृष्टि से विचार करें तो ऐसा प्रतीत होता है कि स्वीकृति रही हुई है । पुनः 'प्रमाद कर्म है और 'अप्रमाद अकर्म' है यह आचारांग और सूत्रकृतांग की अपेक्षा ऋषिभाषित पर्याप्त रूप से विकसित कहकर ६ सूत्रकार ने कर्म के भावपक्ष को भी स्पष्टत: स्वीकार कर लिया ग्रन्थ है। किन्तु कुछ विद्वानों ने इसे आचारांग और सूत्रकृतांग के प्रथम है। कर्म के पुण्य-पाप, कर्म और अकर्म२७, ऐसे तीन पक्षों की चर्चा श्रुतस्कन्ध का समकालीन माना है। इस सन्दर्भ में एक विकल्प यह भी सूत्रकृतांग में उपलब्ध होती हैं । जहाँ तक कर्मप्रकृतियों की चर्चा का माना जा सकता है कि ऋषिभाषित मुख्य रूप से पार्थापत्य परम्परा का प्रश्न है सूत्रकृतांग में मात्र दर्शनावरण८ का उल्लेख मिलता है। इससे ग्रन्थ रहा हो और पार्थापत्य परम्परा में कर्मसिद्धान्त की विकसित चर्चा ऐसा लगता है कि सूत्रकृतांग में कर्मप्रकृतियों की चर्चा के मूलबीज धीरे- भी उपलब्ध हुई है क्योंकि इस ग्रन्थ में कर्मसिद्धान्त का जो विकसित धीरे प्रकट हो रहे थे। कर्म के ईर्यापथिक२९ और साम्परायिक इन दो रूप मिलता है वह मुख्यरूप से इसके 'पार्श्व' नामक अध्ययन में रूपों की चर्चा का प्रश्न अकर्म और कर्म से जुड़ा हुआ है किन्तु इन उपलब्ध होता है । साथ ही कर्मसिद्धान्त के चैतसिक पक्ष और पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग हमें सर्वप्रथम सूत्रकृतांग में मिलता है। कर्मसन्तति की जो विशेष चर्चा उस ग्रन्थ में पायी जाती है, वह भी मुख्य प्रथम श्रुतस्कन्ध में साम्परायिक और द्वितीय श्रुतस्कन्ध में तेरह क्रियास्थानों रूप से महाकश्यप, सारिपुत्र, वज्जिपुत्र आदि बौद्ध ऋषियों के उपदेशों की चर्चा के सन्दर्भ में ईर्यापथिक का उल्लेख आया है ।३१ के रूप में ही है । इसलिए यह सम्भावना पूरी तरह से असत्य नहीं हो
कर्म की दस अवस्थाओं में से हमें उदय२२, उदीरणा और सकती कि पापित्य परम्परा में महावीर की अपेक्षा एक विकसित कर्मक्षय की चर्चा मिलती है। कर्मनिर्जरा के सम्बन्ध में उल्लेख है कर्मसिद्धान्त उपलब्ध था । कि तप के द्वारा कर्मक्षय सम्भव है और सम्पूर्ण कर्म का क्षय हो जाने पर परम सिद्धि प्राप्त होती है ।३५ इस प्रकार हम देखते हैं कि सूत्रकृतांग उत्तराध्ययन की कर्मसम्बन्धी अवधारणा में आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध की अपेक्षा कर्मसिद्धान्त का क्रमिक अंग-आगम साहित्य में आचारांग के पश्चात् स्थानांग, समवायांग विकास हुआ है।
और भगवतीसूत्र ऐसे ग्रन्थ हैं जिनमें कर्मसिद्धान्त का विकसित रूप
उपलब्ध होता है । किन्तु विद्वानों के अनुसार इन तीनों ग्रन्थों में ऋषिभाषित की कर्मसम्बन्धी अवधारणायें
परवर्तीकाल की सामग्री को अन्तिम वाचना के समय संकलित कर ___ कर्मसिद्धान्त के इस क्रमिक विकास की चर्चा में हम यह लिया गया । इसलिए कर्मसिद्धान्त के विकास की दृष्टि से इन ग्रन्थों
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