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जैन विद्या के आयाम खण्ड-७
जाने से संसार रूपी अंकुर की उत्पत्ति नहीं होती । आत्मा और कर्म कर्मों से मुक्ति के लिये दो प्रकार की क्रियायें आवश्यक मानी का सम्बन्ध अनादि काल से है फिर भी दोनों के स्वभाव एक दूसरे से जाती है -- भिन्न हैं ।९४ कर्म में आत्मा के परिणामों के अनुरूप परिणत होने की १. नवीन कर्मों के उपाजन का निरोध, इसे संवर भी कहते योग्यता है इसी कारण आत्मा का कों पर कर्तृत्व घटित होता है ।१५ हैं। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय तथा योग के साहचर्य से कर्म आत्मा २. पूर्वोपार्जित कर्मों का क्षय, इसे निर्जरा कहते हैं। के साथ सम्बन्धित होते हैं। फिर भी तप-साधना के द्वारा इनका पार्थक्य इन दोनों की पूर्णता से ही मुक्ति होती है । नवीन कर्मों का सम्भव है ।९६
- निरोध-संवर, व्रत गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, चारित्र की साधना से जीव और कर्म पद्गलों के संयोग से संसार-भ्रमण होता है। होता है और तप के द्वारा पूर्वबद्ध कर्म की निर्जरा होती है। जीवन और कर्म पुद्गलों के वियोग से मुक्ति होती है । हिंसा आदि तप - सुसुप्त शक्तियों को जागृत करने के लिये, मन को पापाचरणों से अशुभ कर्मों का, अहिंसादि पुण्याचरणों से शुभ कर्मों का एकाग्र तथा इन्द्रियों का निग्रह करने के लिये जैन योग साधना में तप बोध होता है ।१८ कुछ तार्किक कहते हैं कि सुख का कारण शुभ कर्म को बड़ा महत्त्व दिया गया है । ०३ तप से ही योगी कर्मों की निर्जरा१०४ नहीं है क्योंकि संसार में पापाचरण वाले व्यक्ति को भी सुख की प्राप्ति करके सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र को प्राप्त करता है तप की होते देखा जाता है । आचार्य हरिभद्र कहते हैं ऐसे व्यक्ति का अन्तिम आराधना गृहस्थ एवं श्रमण दोनों के लिये आवश्यक है । कर्म रोग को परिणाम दुःख रूप ही होता है वह सुख जो उसे प्राप्त हो रहा है वह मिटाने के लिये तप अचूक औषधि है।०५ तप से मन, इन्द्रिय और योग किसी पूर्व जन्मकृत धर्माचरण का ही फल है१९ । आचार्य हरिभद्र का की रक्षा होती है । ०६ अनिदान पूर्वक किया गया तप सुख का प्रदाता कहना है कि पूर्वबद्ध कर्मों का क्षय, तप, संवर, निर्जरा द्वारा समय से है ।१०७. तप आत्मशक्ति को प्रकटीकरण करने की क्रिया और साधना पूर्व ही किया जा सकता है ।१०० .
है। कषाया का निराध ब्रह्मचय का
है।०८ कषायों का निरोध ब्रह्मचर्य का पालन, जिनपूजा, अनशन आदि आत्मा और कर्म का सम्बन्ध प्रवाह की दृष्टि से अनादि है। तप के रूप कहे गये हैं १०९ तप के दो भेद हैं, बाह्य तप तथा अभ्यन्तर प्राणी अनादि काल से इस कर्म-प्रवाह में पड़ा हुआ है ।१०१ जीव पुराने तप । बाह्य तप का उद्देश्य शारीरिक विकारों का नष्ट करना तथा इन्द्रियों कर्मों का विपाक भोगते समय नवीन कर्मों का उपार्जन करता रहता है पर जय प्राप्त करना है इसके ६ भेद हैं।९० : किन्तु जब तक उसके समस्त कर्म नष्ट नहीं हो जाते उसकी भव-भ्रमण १. अनशन - विशिष्ट अविधि तक आहार का त्याग से मुक्ति नहीं होती । प्राणी को स्वोपार्जित कर्मों का फल अवश्य भोगना करना । योगबिन्दु में चाँद्रायण, कृच्छ मृत्युंजय, पापसूदन आदि तपों का पड़ता है। जैन परम्परा में कर्मों की आठ मूल प्रकृतियाँ कहीं गई हैं।१०२ उल्लेख हुआ है ।११ पहली ४ प्रकृतियाँ घाती कहलाती हैं इनमें आत्मा के चार मूल गुण २. ऊनोदरी - भूख से कम खाना । ज्ञान, दर्शन, सुख और शक्ति का घात होता है -
३. वृत्ति-परिसंख्यान - भोग्य पदार्थों की मात्रा और संख्या - १. ज्ञानावरण - आत्मा में रहने वाले ज्ञान गुण को प्रकट का कम करना। न होने देना।
४. रस-परित्याग - दूध, दही, घी, मक्खन आदि रसों का . २. दर्शनावरण - आत्म बोध रूप दर्शन गुणों को प्रकट त्याग । न होने देना।
५. विविक्तशय्यासन (संलीनता) - बाधा रहित एकान्त , ३. वेदनीय - वेदनीय कर्म के प्रभाव से सुख-दु:खं की स्थान में वास करना । । अनुभूति होती है।
६. कायक्लेश - विविध आसनों का अभ्यास करते हुये , . ४. मोहनीय- मोहनीय कर्म हमारी जीवन दृष्टि और जीवन सर्दी-गर्मी को सहना एवं देह के प्रति ममत्व का त्याग करना। व्यवहार को दूषित बनाता है।
बाह्य तप से शरीर, मन और वृत्तियों पर अनुकूल प्रभाव पड़ता . ५. आयु - कर्म के प्रभाव से जीव की आयु निश्चित होती है। मानसिक शक्तियों में वृद्धि होती है। तपोयोगी साधक बाह्य तपों है। यह आत्मा को शरीर से बांधे रखता है।
की आराधना से आन्तरिक शुद्धि की ओर अग्रसर होता है । बाह्य तप ६. नाम - जो शरीर एवं इन्द्रिय रचना का हेतु हो, यह अभ्यंन्तर तप के पूरक हैं। इससे कषाय, प्रमाद आदि विकारों का शमन व्यक्ति के व्यक्तित्व का निर्धारक होता है।
किया जाता है । अभ्यंतर तप के छ: भेद हैं।१२.. ७. गोत्र - जिसके प्रभाव से उच्च अथवा नीच कुल में जन्म १. प्रायश्चित्त - चित्त शुद्धि के लिये दोषों की आलोचना होता है या अनुकूल या प्रतिकूल परिवेश की उपलब्धि होती है। करके पापों का छेदन करता११३ है।
८. अन्तराय - यह कर्म हमारी प्राप्तियों या उपलब्धियों में २. विनय - गुरु अथवा आचार्य को सम्मान देना तथा बाधक बनता है।
उनकी आज्ञा का पालन करना । विनय से अहंकार विगलित होता है,
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