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हारा
जैन विद्या के आयाम खण्ड-७ प्राप्त नहीं होता।
सुषमा गांग, प्रस्तावना, पृ० ३१, भारतीय विद्या प्रकाशन इस प्रकार हम देखते हैं कि समयसार में आचार्य कुन्दकुन्द दिल्ली, वाराणसी-१९८२ ने अशुद्ध निश्चय एवं व्यवहारनय की दृष्टि से आत्मा को कर्ता-भोक्ता २. समयसार-पं० पन्नालाल द्वारा सम्पादित-प्रस्तावना, पृ० एवं शुद्धनिश्चय नय की दृष्टि से अकर्ता व अभोक्ता कहा है। कन्दकन्दाचार्य १७, गणेशप्रसाद वर्णी ग्रन्थमाला, वाराणसी-वी०नि०सं०का मुख्य प्रयोजन संसारी जीवों के सम्मुख आत्मा के शुद्धस्वरूप को २५०१ इस प्रकार प्रस्तुत करना था जिसके द्वारा जीव अनन्तगुणात्मक ३. समयसार, 'तात्पर्यवृत्ति', पृ० ५। विशुद्ध आत्मा के स्वरूप को जान सके। इसीलिए उन्होंने आत्मस्वरूप ४. रयणसार-कुन्दकुन्दाचार्य, सं० देवेन्द्रकुमार शास्त्री, गाथा को समझाने के लिए निश्चय एवं व्यवहार दोनों नयों का सहारा १५३, पृ० १९४ लिया। जहाँ कन्दकन्दाचार्य ने 'व्यवहार नय के माध्यम से. आत्मा की ५. आचारांग, १/१/१/४ संसारी अवस्था का निरूपण किया है वहीं निश्चयनय के माध्यम से ६. प्रवचनसार, सं०, ए० एन० उपाध्ये, श्रीमद् राजचन्द्र जैन आत्मद्रव्य को पूर्णत: विशुद्ध तथा समस्त पर पदार्थों से पूर्णत: शास्त्रमाला, अगास १९६४, २/५५, पृ० १८९ असम्बद्ध निर्दिष्ट किया है। शुद्धावस्था में आत्मा स्वचतुष्टय में लीन ७. सर्वार्थसिद्धि, सं० जगरूप सहाय, भारतीय जैन सिद्धान्त किसी कार्य का कर्ता-भोक्ता न होकर ज्ञाता-द्रष्टा मात्र होता है। प्रकाशिनी संस्था, कलकत्ता वि०स० १९८५, ५/१९, व्यवहार नय के माध्यम से कुन्दकुन्दाचार्य का उद्देश्य यह दर्शाना है पृ० १६६ कि यद्यपि संसारी४९ आत्मा की अशुद्धावस्था जिसमें वह समस्त ८. समयसार, गाथा २९७ कर्मों का कर्ता-भोक्ता है, एक वास्तविकता है लेकिन यह आत्मा के ९. वही, गाथा ११ वास्तविक स्वरूप के प्रतिकूल है, क्योंकि यह आगन्तुक है इसीलिए १०. वही, गा० १५६ हेय भी है। परन्तु उस विशुद्धावस्था को प्राप्त करने के लिए आत्मा ११. वही, गा० २९ की अशुद्धावस्था का ज्ञान उतना ही आवश्यक है जितना शुद्धावस्था १२. वही, गा० ११. का। उन्होंने निश्चय-नय द्वारा आत्मा की शुद्धावस्था को उपादेय १३. वही, गा० ११ बताया है। पद्मप्रभ ने नय विवक्षा से आत्मा के कर्तृत्व-भोक्तृत्व भाव १४. वही, गा० १४-१५ को स्पष्ट करते हुये कहा है कि 'निकटवर्ती अनुपचरित असद्भूत १५. ण वि होदि अपमत्तो पा मत्तो जाणओ दु जो भावो। व्यवहार नय की अपेक्षा आत्मा द्रव्य कर्म का कर्ता व तज्जन्यफलोपभोक्ता एवं भणंति शुद्धं णाओ जो सो उ सो चेवा। वही, गाथा ६ है। विशुद्ध निश्चय की अपेक्षा समस्त मोह, राग-द्वेषरूप भावकर्मों का १६. वही, गाथा ५०-५५, नियमसार, ३/३८-४६, ५/७८ कर्ता है तथा उन्हीं का भोक्ता है। उपचरित असद्भूत व्यवहार नय से एवं ८० वह घटपटादि का कर्ता व भोक्ता है। निश्चय नय की दृष्टि से वह १७.. नियमसार, सं०, आर्यिका ज्ञानमती जी, प्रकाशक दि० कर्ता-कर्म से परे एक मात्र ज्ञायक भाव एवं एक टोत्कीर्ण है। एवं जैन त्रिलोक शोध संस्थान, हस्तिनापुर, १९८५, गाथाशुद्ध है वे आचार्यशंकर की तरह आता की अशुद्धावस्था को मिथ्या ३/४४-४८ न मानते हुये आत्मा की संसारी अवस्था को एक वास्तविकता के १८. परमात्मप्रकाश, सं० ए०एन० उपाध्ये, श्रीमद् राजचन्द्र रूप में स्वीकार करने से इन्कार नहीं करते। वे आत्मा के ज्ञाता आश्रम, अगास, १९६०, गाथा ९१ द्रष्टापक्ष पर बल देते समय सांख्य के निकट व शुद्ध निश्चय नय पर १९. .. समयसार, गाथा ७८ बल देते समय वेदान्त के निकट खड़े दिखाई देते हैं। आचार्य २०. नियमसार, गाथा १२/१ १७७-७८ कुन्दकुन्द की व्यापक दृष्टि जैनदर्शन की परिधि में रहकर भी जैनेतर २१. पंचास्तिकाय, सं० पं० मनोहरलाल, प्रका०, श्री परमश्रुत दर्शनों की परिधि को छू लेती है जो इस बात की सूचक है कि 'एक प्रभावक मंडल, श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, आगस वि.स. सत् विप्राबहुधावदन्ति' एवं जिज्ञासु केवलमयं विदुषां विवादः' की २०२५, गाथा १६; १०९, १२४ घोषणाएं सत्य हैं।
समयसार, गाथा, ५६-६७ मङ्गलम् भगवान् वीरो मङ्गलम् गौतमो गणी।
पंचास्तिकाय-२७ मङ्गलम् कुन्दकुन्दार्य: जैन धर्मोऽस्तु मङ्गलम्।।
समयसार, आत्मख्याति टीका, गाथा ८६, कलश-५१ कुन्दकुन्दाचार्य की प्रमुख कृतियों में दार्शनिक दृष्टि: डॉ० २५. समयसार-गाथा ९६
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