Book Title: Bhupendranath Jain Abhinandan Granth
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 109
________________ जैन विद्या के आयाम खण्ड-७ वनस्पति में जन्म लेनेवाले जीवों को 'स्थावर' कहते हैं। ५ इन्द्रिय-विषय, निद्रा और १स्नेह-१५।। - जैन सि० प्रवे०, पृ० १२० .जैन सि० प्रवे०, पृ० १०३ ५२. त्रस नामकर्म के उदय से द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और ६३. संजलणणोकसायाणुदयादो संजमो हवे जम्हा। पंचेन्द्रियों में जन्म लेने वाले जीवों को 'स' कहते हैं। मलजणणपमादो वि य तम्हा ह पमत्तविरदो सो ।। -जैन सि० प्रवे० पृ० २९ - गो० जी० ३२ ५३. (अ) णो इंदियेस विरदो, णो जीवे थावरे तसे वापि । ६४. संजलणणेकसायाणुदओ मंदो जदा जदा होदि । जो सद्दहदि जिणुत्तं सम्माइठ्ठी अविरदो सो॥ अपमत्तगणो तेण य अपमत्तो संजदो होदि ।। - गो० जीव०, २९ - गो० जी० ४५ (ब) पाकाच्चारित्रमोहस्य व्यस्तप्राण्यक्षसंयमः। ६५. पंचानां पापानां हिंसादीनां मनोवच: कायैः । त्रिष्वेकतमसम्यक्त्वः सम्यग्दृष्टिरसंयतः॥ कृतकारितानुमोदैस्त्यागस्तु महाव्रतं महताम् ॥ - सं० पंचसंग्रह, १, २३ - रत्नकरण्डश्रावकाचार,७२, ५४. जो कषाय आत्मा के देशचारित्र का (श्रावक के व्रतों का) घात करे ६६. धर्म के आधारभूत गणों को मूलगुण कहते हैं। गृहस्थो (गृहस्थधर्म) उसको अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क (क्रोध, मान, माया, लोभ) के८ और मुनियों के २८ मूलगुण कहे गये है। इनके बिना धर्म कहते हैं। का प्रारम्भ ही नहीं हो सकता। - जैन सि० प्रवे०, पृ०६१ ६७. व्रतों की रक्षा के लिए जो व्रत पाले जाते हैं, वे शीलव्रत कहलाते ५५. (अ) अपिशब्देन संवेगादिइ सम्यक्त्वगुणा: सूच्यनते। हैं। जैसे खेत के अंकुरों की रक्षा के लिए वाड़ का उपयोग होता ___-जीवप्रबो० टीका है वैसे ही व्रतों की रक्षा के लिए इनका पालन किया जाता है। (ब) अपिशब्देनानुकम्पादिगुणसद्भावानिपरराधहिंसा न करोतीति सूच्यते। ६८. गट्ठासेसपमादो वयगुणसीलोलिमंडिओ णाणी। - मन्दप्रबो० टीका अणुवसमओ अखवओ झाणणिलीणोह अपमत्तो ।। ५६. तीर्थंकर महावरी और उनकी आचार्य परम्परा, पृ० ५४५ - गा० जी० ५६ ५७. (क) पच्चक्खाणुदयादो संजमभावो ण होदि णवरिं तु। ६९. अप्रत्याख्यानावरण-४, प्रत्याख्यानावरण-४, संज्वलन-४ और थोववदो होदि तदो, देसवदो होदि पंचमओ॥ हास्यादिक नोकषाय-९, कुल २१ प्रकृतियाँ । - गो० जीव०, ३० ७०. आत्मा के परिणाम 'करण' कहलाते हैं । चारित्रमोह की उपयुक्त (ख) यस्त्राता त्रसकायानां हिंसिता स्थावरांगिनाम् । २१ प्रकृतियों का उमशम या क्षय करने के लिए जीव के अपक्वाष्टकाषायोऽसौ संयताऽसंयतो मतः ॥ अध:करण अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण- ये तीन परिणाम होते - सं० पंचसंग्रह, १,२४ हैं। अध:करण श्रेणी चढ़ने के सम्मुख सातिशय अप्रमत्त के होता ५८. जो आत्मा के सकलचारित्र का घात करे उसे प्रत्याख्यानावरण है । अपूर्वकरण आठवें में और अनिवृत्तिकरण नवें गुणस्थान में चतुष्क (क्रोध, मान, माया, लोभ) कहते हैं। होता है । इनमें प्रतिसमय उतरोत्तर अनन्तगुणी विशुद्धता होती - जैन सि. प्रव०, पृ० ६१ जाती है जिससे कर्मों का उपशम तथा क्षय और स्थिति खण्डन ५९. जो तसबहाउविरदो अविरदओ तहय थावरवहादो। और अनुभाग खण्डन होते हैं। एक्कसमयम्हि जीवो विरदोविरदो जिणेक्कमई ॥ . चूँकि इसमें ऊपर के समयवर्ती और नीचे के समयवर्ती जीवों के - गो० जी० परिणाम संख्या और विशुद्धि की अपेक्षा समान होते हैं, इसीलिए ६०-६१. जो आत्मा के यथाख्यात चारित्र को घातें उन्हें संज्वलन इसे अध-प्रवृत्तकरण कहा जाता है। - गो० जी० ४८ नोकषाय कहते हैं । ईषत् कषाय को नोकषाय कहते हैं । इसके ७२. इगवीसमोहखवणुवसमणणिमित्ताणि तिकरणाणि तहिं । ९ भेद हैं -हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पढमं अद्यावत्तं करणं तु करोदि अपमत्तो ।। पुरूष और नपुंसकवेद। - गो० जी० ४७ ६२. असावधानी, उदासीनता या आलस्य को सामान्यत: प्रमाद कहते ७३. अंतोमुहत्त काल गमिण अघापवत्तकरणं तं । हैं । सिद्वान्तानुसार संज्वलन और नोकषाय के तीव्र उदय से पडिसमयं सुज्झतो, अपुव्वकरणं समल्लियई ।। निरतिचार चारित्र पालने में अनुत्साह को तथा स्वरूप की असावधानता -गो०जी०५० को 'प्रमाद' कहते हैं । ये २५ हैं, जैसे ४ विकथा, ४ कषाय, एदह्मि गुणट्ठाणे विसरिससमयट्ठियेहिं जीवहिं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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