Book Title: Bhupendranath Jain Abhinandan Granth
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 110
________________ गुणस्थान : मनोदशाओं का आध्यात्मिक विश्लेषण ७१ पुव्वमपत्ता जमा होति अपुव्वा हु परिणामा ॥ देते) हैं, वे घातिया कर्म कहलाते हैं । वे चार हैं-ज्ञानावरण, - गो० जी० ५१ दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय। ७४. क्षपयन्ति न ते कर्म शमयन्ति न किञ्चन । ९०. जो जीव ज्ञानावरण, दर्शनावरण कर्मों के उदय की अवस्था में केवलं मोहनीयस्य शमनक्षपणोद्यताः ।। पाये जाते हैं वे सब छद्मस्थ' कहलाते हैं । ये दो तरह के होते सं० पंचसंग्रह, १.३३ हैं - (१) सराग छद्मस्थ और (२) वीतराग छद्मस्थ । रागयुक्त को ७५. उदयकाल से लेकर उत्तरोत्तर संख्यातगणे हीन-हीन समय में ही सराग और रागरहित को वीतराग कहते हैं । ११वें-१२वें उत्तरोत्तर परिणामविशुद्धि होती जाने से आगे-आगे असंख्यातगुणे- गुणस्थान के जीव वीतराग-छद्मस्थ होते हैं और १० वें से पहले असंख्यातगुणे अधिक कर्मपरमाणुओं की (गुणाकर रूप से गुणित) गुणस्थान तक के सभी जीव सराग-छद्मस्थ । निर्जरा 'गुणश्रेणी निर्जरा' कहलाती है । यह ८वें से १४वें ९१. णिस्सेसखीणमोहो फलिहामलभायणुदयसमचितो। गुणस्थान तक होती है। खीणकसाओ भण्णदि णिगंथो वीयरायेहिं ।। ७६. प्रयत्ननिशेष से पूर्वबद्ध सजातीय अशुभ प्रकृतियों को शुभ - गो० जी०६२ प्रकृतियों में परिणत करना 'गुणसंक्रमण' कहलाता है। ९२. जो भाव किसी कर्म के क्षय से उत्पन्न हो वह क्षायिकभाव ७७. उदय में आने वाले कर्मदलिकों की स्थिति को अपकर्षणकरण कहलाता है । द्वारा कम कर देना (घटा देना) स्थितिखण्डन है। - जैन सि. प्रवे०, पृ० ११२ ७८. बद्ध कर्मों की फलदान की शक्ति को अपकर्षणकरण द्वारा मन्द ९३. वायु के प्रभाव से शून्य घर के भीतर जलती हुई दीपक की स्थिर कर देना अनुभागखण्डन है। ज्योति की भाँति को चित्त (अनत:करण) उत्पाद, स्थिति तथा भंग ७९. सं. पंचसंग्रह, १.३५ । में से किसी एक ही पर्याय में अतिशय स्थिर होता है । उसे ८०. गो० जी० ५२-५३, एकत्ववितर्कशुक्लध्यान कहते हैं। इसमें अर्थ, व्यंजन व योग ८१. ये संसथानादिना भिन्नाः समाना: परिणामतः । का संक्रमण नहीं होता है। -ध्यानशतक, गा समानसमयावस्थास्ते भवन्त्यनिवृत्तयः ।। ७९-८० ___- सं० पंचसंग्रह, १.३८ ९४. जो त्रिकालवर्ती समस्थ पदार्थों को और उनकी समस्थ पर्यायों को ८२. होति अणियट्टणो ते पडिसमयं जेस्सिमेक्कपरिणामा । एक साथ प्रत्यक्ष जानता है, वह केवलज्ञान है-सर्वद्रव्यपर्यायेष विमलयरझाणहयवहासिहाहिं णिद्दड्ड कम्भवणा ।। केवलस्य-तत्त्वार्थसूत्र, अ०१,सू. २९ । यह इन्द्रिय, आलोक -गो० जी०५७ आदि की अपेक्षा नहीं रखता, आत्मा से ही जानता-देखता है। ८३. संसरति पर्यटति संसारमनेनेति सम्परायः। इसी से यह अतीन्द्रियदर्शी और प्रत्यक्ष कहलाता है। - इस निरुक्ति के अनुसार। ९५. शतक० मल० हेम० वृत्ति ९, पृ०२०-२१ ८४. लोभः संज्वलनः सूक्ष्मः शमं यत्र प्रपद्यते । ९६. नौ केवल लब्धियाँ- (१) क्षायिक सम्यक्त्व (२) अनन्तदर्शन क्षयं वा संयत: सूक्ष्मः साम्पराय: स: कथ्यते ॥ (३) अनन्तज्ञान (४) अनन्त-चारित्र (५) अनन्तवीर्य (६) दान -सं० पंचसंग्रह, १.४३ । (७) लाभ (८) भोग और उपभोग ८५. कौसम्भोऽन्तर्गतो रागो यथा वस्त्रेऽवतिष्ठते। ९७. सामान्यतया जीव की तीन अवस्थाएँ होती हैं - (१) बहिरात्मा, सूक्ष्मलोभगुणे उलोभः शोध्यमास्तथा तनुः ।। (२) अन्तरात्मा और (३) परमात्मा । सम्यग्दर्शन से रहित -सं० पंचसंग्रह १.४४ मिथ्यादृष्टि जीव बहिरात्मा हैं। सम्यदर्शन से सहित सभी छद्मस्थ ८६. कषायों के सर्वथा अभाव से प्रादुर्भूत आत्मा की शुद्धि-विशेष जीव अन्तरात्मा कहलाते हैं और सर्वज्ञ हो जाने पर सभी जीवों को 'यथाख्यातचारित्र' कहते हैं। को परमात्मा माना गया है । चौथे १२ वें गुणस्थानवी जीव ८७. अणुलोह वेदंतो जीवो उबसामगो व खबगो वा। अन्तरात्मा और इससे ऊपर १३वें गुणस्थानवी जीव परमात्मा माने गये हैं। परमात्मा के दो भेद हैं - सकल और विकल । चार सो सुहुमसंपराओ जहखादेणूणओ किंचि ।। ___ - गो० जी०६० घातिया विनाशक अर्हन्त केवली विकल परमात्मा हैं और सम्पूर्ण ८८. अघोमले यथानीते कतके नाम्भोऽस्ति निलम् । कर्मों से रहित सिद्ध सकल परमात्मा। उपरिष्ठात्तथा शान्तमोहो ध्यानेन मोहने ।। केवलणाणादिवायरकिरणकलावप्पणासियण्णाणो । - सं० पंचसंग्रह, १.४७ णवकेवललघुग्गमसुजणियपरमप्पवबएसो ॥ ८९. जो जीव के ज्ञानादिक अनुजीवी गुणों को घातते (प्रकट नहीं होने असहायणाणदंसणसहिओइदिकेवली हजोगेण । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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