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आचार्य हरिभद्र और उनका योग
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के कारण धर्म और शास्त्र के विधि निषेधों का अतिक्रमण का आत्मकेन्द्रित 'अचरमावर्त' में रहता है, विषय वासना और कामभोगों में आसक्त बना हो जाता है, जो उसके मोक्ष का साक्षात् कारण बन जाता है। रहता है, वह साधक योग मार्ग का अधिकारी नहीं हो सकता । कुछ
आचार्य हरिभद्र कहते हैं कि जिसने अभी धर्म का सच्चा मर्म लोग तो केवल लोक व्यवहार के कारण ही इसकी साधना करते हैं, न जाना हो केवल अभिमुख ही हुआ हो, उसे लोक और समाज के बीच आचार्य ने ऐसे लोगों की भवाभिनन्दी कहा है । ये लोग योग के लिये रह कर आचरण करने योग्य धर्म का उपदेश देना चाहिये, जिससे वह अनाधिकारी माने जाते हैं ।१७ भवाभिनन्दी जीव दुःखमय संसार में लौकिक धर्म का पालन करता हुआ योग मार्ग का अनुसरण कर सके। करणीय, अकरणीय को भूल कर हिंसा, परिग्रह, भोग आदि अकृत्यों उसे गुरु, देव, अतिथि आदि की सेवा तथा दीन जनों को दान देने की में प्रवृत्त रहते हैं उसी में सुख मानते हैं, जो जीव चरमावर्त में रहता है, प्रेरणा देनी चाहिए। उसे सदाचार का पालन, शास्त्रों का पाठ, गुरु से जिसने मिथ्यात्व ग्रन्थि का भेदन कर लिया है, जो शुक्ल पक्षी है, वही शास्त्र-श्रवण, पवित्र तीर्थस्थानों का पर्यटन आदि शुभ कार्यों में प्रवृत्त मोक्ष साधना का अधिकारी है, ऐसा साधक शीघ्र ही अपनी साधना से होकर आत्म-निरीक्षण करना चाहिये। अशुभ कर्मों के निराकरण के भवभ्रमण का अंत कर देता है, सात्विक मन, सद्बुद्धि, सम्यग्ज्ञान की लिये आन्तरिक भय होने पर सद्गुरु की शरण लेनी चाहिये, कर्म योग उत्तरोत्तर विकासोन्मुखता के कारण वह मुक्ति परायण होता है ।१९ जैनत्व के उपचार के लिये तप का अनुष्ठान करना चाहिये, मोह रूपी विष को जाति से, अनुवंश से अथवा किसी प्रवृत्ति-विशेष से नहीं माना गया है, दूर करने के लिये स्वाध्याय का आश्रय लेना चाहिये । आचार्य हरिभद्र परन्तु यह आध्यात्मिकता की भूमिका के ऊपर निर्भर करता है । प्रथम ने अर्हतों को शुभ भाव से नमन, सत्पुरुषों की सेवा, संसार के प्रति सोपान में दृष्टि मोक्षाभिमुख होती है जिसका पारिभाषिक नाम अपुनर्बन्धक वैराग्य, सत्पात्र को निर्दोष आहार, उपकरण, औषधि आदि का सब है, मोक्ष के प्रति सहज श्रद्धा और यथाशक्ति दूसरा सोपान है । जब श्रद्धा शास्त्रों का लेखन, पूजन, प्रकाशन, शास्त्र-श्रवण, विधिपूर्वक शुभ आंशिक रूप से जीवन में उतरती है तो देशविरति तीसरा सोपान होता उपधान क्रिया इस सबको योग बीज कहा है । ११
है, जब सम्पूर्ण चारित्र की कला विकसित होती है, तो चौथा सोपान
सर्वविरति होता है। हरिभद्र ने योगबिन्द में योग के अधिकारियों को चार योगियों के प्रकार -
भागों में विभक्त किया है २० : आचार्य ने ४ प्रकार के योगी बताये हैं -
१. अपुनर्बन्धक - ऐसा साधक जो मिथ्यात्व दशा में रहता १. कुल योगी - जो योगियों के कुल में जन्में हो और हुआ भी सद्गुणों की प्राप्ति के लिये प्रयत्नशील रहता है, जिसमें मोक्ष प्रकृति से ही योगधर्मी हों, ब्राह्मण, देव, गुरु का सम्मान करते हों, के प्रति श्रद्धा और रुचि पैदा हो जाती है और राग-द्वेष एवं कषायों का किसी से द्वेष न रखने वाले, दयालु, विनम्र, प्रबुद्ध तथा जितेन्द्रिय हों ।१२ तीव्र बल, घट जाता है, फिर भी वह आत्म-अनात्म (जड़-चेतन) का
२.गोत्रयोगी३. साधक के गोत्र में जन्म लेने वाले योगी विभेद सम्यक् प्रकार से नहीं कर पाता ।२१ आचार्य कहते हैं कि - ऐसे को गोत्र योगी कहा जाता है। यम-नियम आदि का पालन न करने के व्यक्ति को लोक-कल्याण का उपदेश देना चाहिये जैसे दूसरे के दुःख कारण उनकी प्रवृत्ति संसाराभिमुख होती है। अत: वे योग के अधिकारी दूर करना, देव, गुरु तथा अतिथि की पूजा करना, दीन-दुखियों को दान नहीं माने जाते है।
आदि। ३. प्रवृत्तचक्रयोगी - ऐसा योगी अपनी मोक्षाभिलाषा का २. सम्यग्दृष्टि - सांसारिक प्रपंचों में रहता हुआ भी, जो बढ़ाने वाला, सेवा-सुश्रुषा, श्रवण, धारण, विज्ञान, ईहा, उपोह, मोक्षाभिमुख होता है, जिसमें श्रद्धा-रुचि और समझ आंशिक रूप में आ तत्त्वाभिनिवेश आदि गुणों से युक्त होकर यत्न-पूर्वक प्रवृत्ति करने वाला जाती है धार्मिक तत्त्व सुनने की इच्छा, धर्म के प्रति अनुराग, आत्महोता है ।१४
समाधि (आत्म-शांति), देव तथा गुरु की नियमपूर्वक सेवा करने की ४. निष्पन्न योगी - जिसकी मोक्ष साधना निष्पन्न हो चुकी इच्छा जिसमें उत्पन्न हो जाती है, २३ ऐसे साधन को विशुद्ध आज्ञा योग है वह निष्पन्न योगी है। ऐसा योगी सिद्धि के अति निकट होता है। के आधार पर अणुव्रत आदि को लक्ष्य में रखकर उपदेश देना उसकी प्रवृत्ति सहज रूप में ही धर्ममय हो जाती है ।१५
चाहिये ।२४ योग के अधिकारी - जीवन के अनादि प्रवाह में विविध ३. देशविरति - अणुव्रतों का पालन करता हुआ साधक कारणों से कर्ममल क्षीण होते रहते हैं और एक ऐसा समय आता है मोक्ष मार्ग की ओर बढ़ता है । सम्पूर्ण चारित्र की इच्छा विकसित होती जब जीवन की वृत्ति भोगाभिमुख न होकर योगाभिमुख होने लगती है, है। ऐसा साधक सन्मार्ग का अनुसरण करने वाला, श्रद्धावान, धर्मोपदेश राग-द्वेष की तीव्रता भी मंद हो जाती है । वह नये कर्मसस्कारों का के योग्य, धर्म क्रिया में अनुरक्त, यथाशक्ति अध्यात्म साधना में तथा निर्माण करे तो भी उसके संसार में दीर्घकाल तक रहने की संभावना नहीं वीतराग दशा प्राप्त होने तक समत्व की साधना करने वाला होता है ।२५ होती ऐसे काल को जैन परिभाषा में चरमार्वत कहा गया है ।१६ आचार्य ऐसे साधक को परमार्थलक्षी और सूक्ष्म उपदेश देना चाहिए ।२६ ने योग के अधिकारियों की चर्चा करते हये कहा है कि जो साधक ४. सर्वविरति - सम्यक्तव प्राप्त हो जाने से अनुकम्पा,
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