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वैदिक एवं श्रमण परम्परा में ध्यान
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माना गया है । इस निर्वाण के लिए प्रज्ञा में प्रतिष्ठित होना आवश्यक ब्रह्मप्राप्तो विरजोऽभूद्विमय्यं रन्योऽप्येवं यो विदधात्ममेव ।। है और प्रज्ञा में प्रतिष्ठित होने के लिए समाधि, सम्यक् समाधि का कठोपनिषद्, सच्चिदानंद सरस्वती, अध्यात्म प्रकाशन कार्यालय, परिपुष्ट होना अनिवार्य है। इनकी परिपुष्टि हेतु शील सम्पन्न होना नरसीपुर (मैसूर), २/३/१८ आवश्यक है।
८. हृदा मनीषा मनसाऽभिक्लप्तो ......... । श्वेताश्वतर उपनिषद, इस प्रकार हम देखते हैं कि बौद्ध परम्परा में ध्यान साधना उद्भा अष्टादश उपनिषद्, १/१३ क्रम-बद्ध, व्यवस्थित एवं संयोजित है । साधक निरन्तर स्थूल से सूक्ष्म ९. गीता, श्री विद्यानंद ग्रंथमाला, काशी, २/६२-६३ की ओर गति करता है और अन्त में लोकोत्तर ध्यान में पहुँच जाता है, १०. तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम् । पातञ्जल योगदर्शन - गोयनका, निर्वाण का साक्षात्कार कर लेता है । तथागत द्वारा प्रवर्तित यह कथन ध्यान की पराकाष्ठा को चित्रित करता है जो अनुकरणीय एवं द्रष्टव्य ११. अभ्यास-वैराग्याभ्यां तन्निरोध: । वही, १/१२
१२. अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते । गीता, ६/३५ अत: यह कहा जा सकता है कि वैदिक, जैन और बौद्ध इन १३. ध्याने निर्विषयं मनः । सांख्यदर्शन, संपा० पं० जनार्दन शास्त्री तीनों परम्पराओं में ध्यान के सन्दर्भ में समुचित चिन्तन मिलता है। तीनों पाण्डेय, भारतमनीषा, वाराणसी, वि० सं० २०२१, ६/२३ ने ही एक स्वर से इसकी महत्ता को स्वीकार किया है तथा इसे निर्वाण, १४. ध्यानहेयास्तवृत्तयः । पातंजल योगदर्शन, गोयनका, २/११ मोक्ष, कैवल्य प्राप्ति का एक सबल साधन माना है । यद्यपि इन तीनों १५. दुविहं पि मोक्खहेउं ज्झाणे पाउणदि जं मुणी णियामा। परम्पराओं की आध्यात्मिक चिन्तनधारा में तीन तत्त्वों को महत्त्वपूर्ण तम्हा पयत्तचित्ता जूयं झाणं समब्भसह ।। माना गया है फिर भी ध्यान को एक विशिष्ट स्थान दिया गया है । जहाँ द्रव्यसंग्रह, अनु० पं० मनोहरलाल शास्त्री, परमश्रुत प्रभावक वैदिक परम्परा में कर्म, ज्ञान एवं भक्ति की त्रिपुटी पर बल दिया गया मंडल, अगास, १९१९, ४७ है, वहीं जैनों ने सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, एवं सम्यग्चरित्र को प्रमुखता १६. तत्त्वार्थसूत्र, संघवी, १/२७ दी है एवं बौद्धों ने इस हेतु शील, समाधि एवं प्रज्ञा को महत्त्व दिया १७. जीवस्य एगग्गे जोगाभिनिवेस्सो झाणं ... । आवश्यक नियुक्ति, है। वस्तुत: ये तीनों तत्त्व ही मोक्ष-प्राप्ति के साधन माने गए, लेकिन ऋषभदेव जी केशरीमल जी श्वेताम्बर संस्था, रतलाम, १९२९, इन त्रिविध साधना मार्ग में वही साधक सफल हो पाता है जो ध्यान की ८१ सम्यक् साधना करता है।
१८. एकाग्र-चिन्ता-रोधो य: परिस्पनदेन वर्जितः ।
तद्धयानं....।। तत्त्वानुशासन, वीरसेवा मन्दिर ट्रस्ट प्रकाशन, १. योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः । योगसूत्र (पतञ्जलि कृत), टीका हरिकृष्ण
दिल्ली, १९६३, ५६ दास गोयनका, गीताप्रेस, गोरखपुर, द्वितीय संस्करण, संवत् र
१९. रत्नत्रयमयं ध्यानमात्मरूप प्ररूपकम् ।। २०११, १/२
अनन्यगत-चित्तस्य विद्यत्ते कर्म-संक्षयम् ।। योगसारप्राभृत, वीतराग एकाग्रचिन्तानिरोधोध्यानम् । तत्त्वार्थसूत्र, विवेचक पं० सुखलाल
सत् साहित्य प्रकाशन ट्रस्ट, भावनगर, संवत् २०३४, ६/७ संघवी, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १९७६,
२०. ...ध्यानमप्रशस्त-प्रशस्तभेदेन द्विविधं । चारित्रसार, उद्धत जैनेन्द्र
सिद्धान्त कोश, भाग २, पृ० २९५, १६७८/२ ९/२७ ३. समन्तपासादिका, नवनालन्दा महाविहार, नालन्दा, १९६४,
२१. रागद्वेषमिथ्यात्वासांश्लिष्टज्ञानं ध्यानमित्युच्यते । भगवती-आराधना, खण्ड १, पृ० १४५-१४६
विजयोदया टीका, अनु० पं० कैलाशचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री, जैन ४. युक्तेन मनसा वयं देवस्य सवितः सते । स्वाय शक्तया ।।
संरक्षक संघ, शोलापुर, १९७८, २१, पृ० ४४ यजुर्वेद, दयानंद संस्थान, नई दिल्ली, ३४/४४ र
२२. चत्तारि झाणा पण्णत्ता, तं जहा अट्टेदाणे, रोद्दझाणे, सुक्केझाणे। तस्यैव कल्पनाहीनस्वरूपं ग्रहणं हि यत्
स्थानाङ्गसूत्र, सम्पादक : मधुकर मुनि,श्री आगम पंकाशन मनसाध्याननिष्पाद्यं समाधिः सोऽभिधीयते ।। विष्णु पुराण, ६/
समिति व्यावर, १९८२, ४/२४७ ७/९२, अनु० श्री मुनिलाल गुप्त, गीताप्रेस, गोरखपुर, संवत्
२४. निष्क्रिय करुणातीतं ध्यानधारणवर्जितम् । ज्ञानार्णव, अनु० बालचन्द र
शास्त्री, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर, १९७७, ३९/४१ २०२४ ६. न तत्र चक्षुर्गच्छति । केनोपनिषद, अष्टादश उपनिषद. वैदिक २५. तत्त्वार्थसूत्र भाष्य (हरिभद्रसूरि), ऋषभदेव जी केशरीमल जी. संशोधन मंडल पूना, १९५८, १/३ ।
जैन श्वेताम्बर संस्था, रतलाम, १९३६, अध्याय ९, पृ०४८७ ७. मृत्यप्रोक्तां नचिकेतोऽयं लब्ध्वा विद्यामेतां योगविधिं च कृत्स्नम्। २५
२६. इण्डियन फिलॉसफी, भाग-१, डॉ० राधाकृष्णन, जॉर्ज ऐलेन
सन्दर्भ
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