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जैन विद्या के आयाम खण्ड-७
कर्मों का क्षय हो जाने पर) भवाङ्कर (संसार) पैदा नहीं होती ।१०३ ७. जैन सि० प्रवे०, पृ० १४४
संसार और मोक्षमार्ग का यही अन्तिम स्थान है । यहीं पर ८. गुणस्थानेषु परमपद-प्रासाद-शिखरारोहण सोपानेषु । शैलेशी अवस्था प्राप्त होती है तथा व्युपरतक्रियानिवृत्ति शुक्लध्यान०४
- कर्मस्तव, दे. स्वो. वृत्ति-१ रूप से परिणाम होते हैं जो संसार का पूर्णतया नाश करने में सर्वथा ९. समता: दर्शन और व्यवहार, पृ० १०४ समर्थ हैं । इससे रत्नत्रयरूप करण को प्राप्त कर संसारातीत सिद्धपर्याय १०. तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, भाग १, पृ०५४४. को प्राप्त कर लेते हैं। संसार का अन्त हो जाने पर भी आत्मद्रव्य का ११. पमादपच्चया जोगनिमित्तं च ।- भगवतीसूत्र, १. ३.१२७ विनाश नहीं होता, अपितु शुद्ध चैतन्य रूप में उसका अस्तित्व बना १२. स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा १०२-१०३ । रहता है । इस अवस्था में आत्मा ज्ञानावरणादि आठ कर्मों से रहित, १३. जोगा पयडिपदेसा ठिदि अणुंभागा कसायदो होति ।- द्रव्यसंग्रह, सभ्यक्त्वादि ८ गुणों से युक्त, अनन्तसुखमय, निरंजन, नित्य, कृतकृत्य और लोकाय में (सिद्ध-शिला पर) अवस्थित रहता हैं।०५। १४. मिच्छादसण अविरदि कसायजोगा हवन्ति बन्धस्स । सन्दर्भ
- मूलाचार, १२, १४।
१५. मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा: बन्धहेतवः । १. गुणाः ज्ञानदर्शनचारित्ररूपा: जीवस्वभावविशेषाः, तिष्ठन्ति गुणाः अस्मिन्निति स्थानम् ।
- तत्त्वार्थसूत्र, ८.१
१६. ये चारित्रपरीणामं कषन्ति शिवकारणम् । ज्ञानादिगुणानामेवोपचयापचयकृत: स्वरूपभेदः,
- पंचसंग्रह (संस्कृत), १,२०३ गुणानां स्थानं गुणस्थानम्। -शतक० मल० हेम० वृत्ति- १४/२
- जो मोक्ष के कारणभूत चारित्र धारण करने के परिणाम न होने
देवें, आत्मा के स्वरूप को कसें, दुख देवें, उन्हें कषाय कहते २. स्थिति को पूरी करके कर्म के फल देने को 'उदय' कहते हैं। -जैन सि० प्रवे०, पृ० ८६
हैं। ये अननता० ४, अप्रत्या० ४, प्रत्या० ४, संज्वलन ४ और ३. द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के निमित्त से कर्म की शक्ति की
नोकषाय ९ कुल २५ होती हैं। अनुभूति को 'उपशम' कहते हैं।
१७. जैन सि० प्रवे० ५९
१८. (अ) मिच्छो सासण मिस्सो अविरसम्मो य देशविरदो य ।
-वही, पृ०८६ ४. कर्म की आत्यन्तिक निवृत्ति 'क्षय' है।
विरदा प्रमत्त इदरो अपुव्व अण्णिय? सुहमो य ॥९॥
.गो० जीव० - वही, पृ०८७ ५. वर्तमान निषेक में सर्वघाती स्पर्द्धकों का उदयभावी क्षय तथा
उवसन्त खीणमोहो सजोगकेवलिजिणो अजोगी य। देशघाती स्पर्द्धकों का उदय और आगामी काल में उदय में आने
चउदस जीवसमासा कमेण सिद्धा य णादव्वा ॥१०॥
- गो० जीव० वाले निषेकों का सदवस्थारूप उपशम-ऐसी कर्म-अवस्था को 'क्षयोपशम' कहते हैं।
(ब) तत्त्वार्थसार, २. १६-१७ (स) षट्खं० संतसुत्त, विवरणसूत्र
९ से २३ . . वही, पृ०८७
१९. जैन सि० प्रवे०, पृ० १४५ ६. (अ) जेहिं दु लक्खिज्जन्ते उदयादिसु संभवेहिं भावहिं।
२०. जो भाव कर्मों के उदय से हो, वह 'औदयिकभाव' कहलाता है। जीवा ते गुणसण्णा णिद्दिट्ठा सव्वदरसीहिं ॥८॥
- जैन सि० प्रवे०, पृ० ११२ -गो०, जीव०
२१. जो उपशम, क्षय, क्षयोपशम व उदय की अपेक्षा न रखता हुआ (ब) अनेन (गुणशब्दनिरुक्तिप्रधानसूत्रेण) मिथ्यात्वादयोऽयोगिकेवलिपर्यन्ता
जीव का स्वभावमात्र हो उसको 'पारिणामिकभाव' कहते हैं। जीवपरिणामविशेषाः ते एव गुणस्थानानीति प्रतिपादितं भवति ।
- वही, पृ० ११२ _ - जीवप्रबोधिनी टीका २२.
२२. जो कर्मों के क्षयोपशम से हो, वह 'क्षायोपशमिकभाव' कहलाता (स) यैः भावैः औदयिकादिभिर्मिथ्यादर्शनादिभिः परिणामै- जीवा
है। - वही, पृ० ११२ गण्यन्ते..... ते भावाः गणसंज्ञा संवदर्शिभि: निर्दिष्टाः।
२३. जो किसी कर्म के उपशम से हो वह औपशमिकभाव' कहलाता _ - मन्दप्रबोधिनी टीका
है। - वही, पृ० १११ (द) संस्कृत पंचसंग्रह (भारतीय ज्ञानपीठ)-अ० १, का०३,
२४. जो किसी कर्म के क्षय से उत्पन्न हो, उसको 'क्षायिकभाव' कहते
हैं। - वही, पृ० ११२ २५. गो. जीव० गाथा ११ एवं १२ तथा षटखं० भावानु० सूत्र
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