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'समयसार' के अनुसार आत्मा का कर्तृत्व-अकर्तृत्व एवं भोक्तृत्व.....
प्रत्यक्ष विरुद्ध होने से मिथ्या है। कुंदकुंदाचार्य ने द्रव्य की पर्याय रूप आत्मा शुभ-अशुभ कर्मों का कर्ता एवं उन कर्मफलों का भोक्ता है। अवस्थाओं को 'क्षणिक किंवा अनित्य स्वीकार करके भी उन पर्यायों जिसप्रकार व्यावहारिक दृष्टि या व्यवहार नय से आत्मा पुद्गल कर्मों में सर्वदा विद्यमान रहने वाले गुण के कारण द्रव्य की नित्य सत्ता का कर्ता है उसी प्रकार वह पौद्गलिक कर्मजन्य फल सुख-दु:ख एवं स्वीकार की है। यदि ऐसा माना जाय तो पर्यायार्थिक दृष्टि से आत्मा बाह्यपदार्थों का भोक्ता है। आत्मा जब तक प्रकृति के निमित्त से में कर्तृत्व-भोक्तृत्व के समय अन्य पर्याय का कर्तृत्व एवं अन्य पर्याय विभिन्न पर्याय रूप उत्पाद एवं व्यय का परित्याग नहीं करता तबतक का भोक्तृत्व सम्भव है जैसे मनुष्य पर्याय में किये गये शुभकर्मों का वह मिथ्यादृष्टि व असंयमी रहकर सुख दुःख का उपभोग करता रहता फल देव पर्याय में होगा किन्तु द्रव्यार्थिक दृष्टि से देखा जाय तो है। अवधेय है कि जैनदर्शन में आत्मा के भोक्तृत्व को सांख्य की मोतियों की माला में अनुस्यूत सूत्र के समान समस्त पर्यायों में द्रव्य तरह उपचार से भोक्तृत्व नहीं कहा गया है। सांख्यवादी पुरुष को अनुस्यूत रहता है अत: वही नित्य द्रव्य कर्ता एवं भोक्ता है। उपचार से कर्मफलों का भोक्ता मानते हैं४३, आचार्य कुन्दकुन्द ऐसा
आत्मा के अकर्तृत्व का प्रतिपादन करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द न मानकर आत्मा को व्यावहारिक स्तर पर वास्तविक रूप से भोक्ता ने कहा है कि निश्चय नय (शुद्ध निश्चय) से यह पारमार्थिक दृष्टि से मानते हैं।४। सांख्यों के उपचार से भोक्ता कहने का तात्पर्य यह है कि आत्मा को कर्ता मानना मिथ्या है, ऐसा मानने वाले अज्ञानी हैं३९। यद्यपि पुरुष भोक्ता नहीं है लेकिन बुद्धि में प्रतिबिम्बित सुख-दु:ख आत्मा किसी से उत्पन्न नहीं हुआ है इसलिए कार्य नहीं है और किसी की छाया पुरुष में पड़ने लगती है यही उसका भोग है। उनके अनुसार को उत्पन्न नहीं करता इसलिए कारण भी नहीं है। कर्म की अपेक्षा भोग क्रिया वस्तुतः बुद्धिगत है परन्तु बुद्धि के प्रतिसंवेदी पुरुष में कर्ता व कर्ता की अपेक्षा कर्म उत्पन्न होते हैं-ऐसा नियम है। कर्ता व भोग का उपचार होता है, जिसप्रकार स्फटिक मणि लालफूल के कर्म अन्य की अपेक्षा सिद्ध न होकर स्वद्रव्य की अपेक्षा से ही सिद्ध सान्निध्य के कारण लाल एवं पीले फूल के संसर्ग के कारण पीली होते हैं, अत: आत्मा-अकर्ता है४°। आत्मा जो स्वभाव से शुद्ध तथा दिखाई देती है एवं एवं फूल के हट-जाने पर अपने स्वच्छ स्वरूप देदीप्यमान चैतन्यस्वखेप ज्योति के द्वारा जिसने संसार के विस्तार में प्रतीत होने लगती है। उसी प्रकार चेतन पुरुष बुद्धि में प्रतिफलित रूप भवन को प्राप्त कर लिया है-अकर्ता है४१। अत: शुद्धनिश्चय नय होता है। जैनदार्शनिक सांख्य के उक्त मत से सहमत नहीं हैं। चूंकि की दृष्टि से आत्मा अकर्ता है। आत्मा में कर्तृकत्वपन पर और पुरुष अमूर्त है इसलिए एक तो उसका प्रतिबिम्ब नहीं हो सकता है, आत्मद्रव्य के एकत्वाध्यास से होता है। 'अज्ञानी जीव भेद संवेदन दूसरे पुरुष का प्रतिबिम्ब बुद्धि में पड़ने से पुरुष को यदि भोक्ता माना शक्ति के तिरोहित हो जाने के कारण आत्मा को कर्ता समझता है। वह जाय तो मुक्त पुरुष को भी भोक्ता मानना पड़ेगा क्योंकि उसका पर और आत्मा को एकरूप समझता है, इसी मिश्रित ज्ञान से आत्मा प्रतिबिम्ब भी बुद्धि में पड़ सकता है। यदि सांख्य भुक्त पुरुष को के अकर्तृत्व व एकस्वरूप विज्ञानघन से पथभ्रष्ट होकर आत्मा को भोक्ता न स्वीकार करे तो तात्पर्यत: पुरुष ने अपना भोक्तृत्व स्वभाव कर्ता समझता है। आत्मा तो अनादिघन निरन्तर समस्तरसों से भिन्न छोड़ दिया है और ऐसा मानने पर आत्मा परिणामी हो जायेगा। अत: अत्यंत मधुर एक चैतन्य रस से परिपूर्ण है। कषायों के साथ आत्मा आत्मा उपचार रूप से भोक्ता नहीं बल्कि वह भोक्तृत्व के अर्थ में का विकल्प अज्ञान से होता है, जिसे आत्मा व कषायों का भेदज्ञान भोक्ता है, समयसार के अनुसार जीव का कर्म एवं कर्मफलादि के हो जाता है, वह ज्ञानी आत्मा सम्पूर्ण कर्तभाव को त्याग देता है, वह साथ निमित्त-नैमित्तिक रूपेण सम्बन्ध ही कर्ताकर्मभाव अथवा भोक्ता नित्य उदासीन अवस्था को धारण कर केवल ज्ञायक रूप में स्थित भोग्य व्यवहार है।४५ रहता है और इसी से निर्विकल्पक अकृत, एक, विज्ञानघन होता आत्मा के अभोक्तृत्व की व्याख्या करते हुए समयसार में हुआ अत्यन्त अकर्त्ताप्रतिभासता है४२।' अज्ञानान्धकार से युक्त जो आचार्य ने कहा है कि प्रकृति के स्वभाव में स्थित होकर ही कर्मफल
आत्मा को कर्ता मानते हैं, वे मोक्ष के इच्छुक होते हुए भी मोक्ष को का भोक्ता है इसके विपरीत ज्ञानी जीव उदीयमान कर्मफल का ज्ञाता प्राप्त नहीं होते। अत: निश्चयनय या पारमार्थिक दृष्टि से कुन्दकुन्द होता है भोक्ता नहीं ६। वह अनेक प्रकार के मधुर, कटु, शुभाशुभ आत्मा में कर्तृत्व नहीं मानते, वह तो आस, अरूप, अगंध सब कर्मों के फल का ज्ञाता होते हुए भी अभोक्ता कहलाता है। जिस प्रकार प्रकार के लिंग आवृत्ति से रहित, अशब्द, अशरीरी, ज्ञायक स्वभाव नेत्र विभिन्न पदार्थों को देखता मात्र है, उनका कर्ता भोक्ता नहीं होता एवं शुद्ध है।
उसी प्रकार आत्मा बंध तथा मोक्ष को कर्मोदय एवं निर्जरा को जानता
मात्र है, उनका कर्ता भोक्ता नहीं होता। पुद्गल जन्य कर्मों का भोक्ता आत्मा का भोक्तृत्व-अभोक्तृत्व :
होते हये भी ज्ञानी आत्मा उसी प्रकार कर्मों या तज्जन्य फलों से नहीं ___ आचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार व्यवहार नय की अपेक्षा से बंधता है जिस प्रकार वैद्य विष का उपभोग करता हुआ भी मरण को
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