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'समयसार' के अनुसार आत्मा का कर्तृत्व अकर्तृत्व एवं भोक्तृत्व .......
करते हुये आचार्य ने कहा कि- 'निश्चय नय के अनुसार आत्मा चैतन्य स्वरूप तथा एक है, वह बंधविहीन, निरपेक्ष, स्वाश्रित, अचल निस्संग, ज्ञायक एवं ज्योतिमात्र है १४ । निश्चय नय की दृष्टि से आत्मा न प्रमत्त है न अप्रमत्त है और न ज्ञानदर्शनचारित्र स्वरूप है९५। वह तो एकमात्र ज्ञायक है । वह अशेष द्रव्यान्तरों से तथा उसके निमित्त से होने वाले पर्यायों से भिन्न शुद्ध द्रव्य है। आत्मा अनन्य शुद्ध एवं उपयोग स्वरूप है। वह रस, रूप और गन्धरहित, अव्यक्त चैतन्यगुण युक्त, शब्दरहित चक्षु इन्द्रिय आदि से अगोचर अलिंग एवं पुद्गलाकार से रहित है। वह शरीर संस्थान, संहनन, राग, द्वेष, मोह, प्रत्यय, कर्म, वर्ग, वर्गणा, अध्यवसाय, अनुभाग, योग, बंध, उदय, मार्गणा, स्थितबंध, संक्लेश स्थान से रहित है१६ आत्मा निर्धन्य वीतराग व निःशल्य है। परमात्मप्रकाश में शुद्ध आत्मा के स्वरूप को बताते हुए कहा गया है कि 'न मैं मार्गणा स्थान हूँ, न गुणस्थान हूँ, न जीवसमास हूँ, न बालक-वृद्ध एवं युवावस्था रूप हूँ१८ | समयसार में आचार्य ने कहा है कि 'निश्चय से मैं एक हूँ, शुद्ध हूँ, दर्शन ज्ञानमय एवं सदाकाल अरूपी हूँ, अन्य परद्रव्य परमाणुमात्र भी मेरा कुछ नहीं है १९ निश्चय नय से यह आत्मा अनादिकाल से अप्रतिबुद्ध हो रहा है, इसी अप्रतिमुद्धता के कारण वह 'स्व' और 'पर' के भेद से अनभिज्ञ है। आत्मा है तो आत्मा में ही परन्तु अज्ञानी उसे शरीरादि पर पदार्थों में खोजकर दुःख का पानी बनता है। नियमसार में भी आचार्य ने कहा है कि निश्चय नय से आत्मा जन्म, जरा-मरण एवं उत्कृष्ट कर्मों से रहित, शुद्ध ज्ञान, दर्शन, सुखवीर्य स्वभाव वाला, नित्य अविचल रूप है। अतः निश्चय नय से आत्मा चैतन्य उपयोग स्वरूप १९, स्वयंभू, ध्रुव, अमूर्तिक, सिद्ध, अनादि, धन, अतीन्द्रिय, निर्विकल्प एवं शब्दातीत है। समस्त षट्कारचक्र की प्रक्रिया भेद दृष्टि या व्यवहार नय से है अभेद दृष्टि में इसका अस्तित्व ही नहीं है।
व्यवहार नय की दृष्टि से आचार्य ने अशुद्ध संसारी आत्मा का विवेचन किया है । इस दृष्टि से अध्यवसाय आदि कर्म से विकृत भावों को आत्मा कहा है। जीव के एकेन्द्रियादि भेद, गुणस्थान, जीव समास एवं कर्म के संयोग से उत्पन्न गोरादि वर्ण तथा जरादि अवस्थाएं और नर-नारी आदि पर्यायें अशुद्ध आत्मा की होती हैं२२ व्यवहार नय दृष्टि से ही ज्ञान, दर्शन और चारित्र आत्मा के कहलाते हैं। आत्मा चैतन्य स्वरूप, प्रभुकर्ता, देहप्रमाण एवं कर्मसंयुक्त है २३ । व्यवहार नय से आत्मा शुभ-अशुभ कर्मों का कर्ता एवं सुख-सुखादि फलों का भोता है। व्यवहार से ही जीव व शरीर को एक समझा जाता है निश्चय नय से जीव व शरीर कभी एक नहीं हो सकते। शरीर के साथ आत्मा का एक क्षेत्रावगाह होने से शरीर को आत्मा कहने का व्यवहार होता है जैसे-चाँदी व सोने को गला देने पर एक पिण्ड हो जाता है पर वस्तुतः दोनों अलग होते हैं, उसी प्रकार आत्मा और शरीर इन दोनों के एक क्षेत्र में अवस्थित होने से दोनों की जो
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अवस्थायें हैं यद्यपि वे भिन्न हैं तथापि उनमें एकपन का व्यवहार होने लगता है। इस प्रकार व्यवहार नय से आत्मा शुभ-अशुभ कर्मों का कर्ता एवं सुखादि फलों का भोक्ता है। आत्मा का कर्तृत्व- अकर्तृत्व :
न्याय-वैशेषिक, मीमांसा व वेदान्त की तरह जैन दार्शनिकों ने भी आत्मा को शुभ-अशुभ, द्रव्यभाव कर्मों का कर्ता व भोक्ता माना है। सांख्य दर्शन एक ऐसा दर्शन है जो आत्मा को कर्ता तो नहीं मानता पर भोक्ता मानता है। अन्य भारतीय दार्शनिकों की अपेक्षा जैन दार्शनिकों की यह विशेषता रही है कि वे अपने मूलभूत सिद्धान्त स्याद्वाद के अनुसार आत्मा को कथंचित् कर्ता व कथंचित् अकर्ता मानते हैं।
जैनदर्शन की परम्परागत मान्यता के अनुरूप आचार्य कुन्दकुन्द भी आत्मा को कर्ता एवं भोक्ता निर्दिष्ट करते हैं। उन्होंने आत्म के कर्तृत्व-भोक्तृत्व पर तीन दृष्टियों से विचार किया है- निश्चय नय, अशुद्धनिश्चय नय एवं व्यवहार नय। इन तीनों दृष्टियों से विचार करने पर आत्मा में कर्तृत्व-अकर्तृत्त्व एवं भोक्तृत्व अभोक्तृव दोनों परिलक्षित होता है। जिसे हम आने वाली पंक्तियों में देखेंगे।
कुन्दकुन्दाचार्य के अनुसार आत्मा को कर्ता कहने का तात्पर्य यह है कि वह परिणमनशील है। 'यः परिणमति सः कर्ता २४ अन्य द्रव्यों की भांति आत्मा में भी स्वभाव व विभाव दो पर्याय माने गये हैं। अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख तथा अनन्त वीर्य ये आत्मा के स्वभाव गुण पर्याय हैं । पुद्गल या पुद्रलकमों के संयोग के कारण आत्मा में होने वाले पर्याय विभाव पर्याय कहलाते हैं जैसे- मनुष्य, नारकीय, तिर्यञ्च आदि गतियों में आत्मप्रदेशों का एकाकार होना विभाव पर्याय है। चूंकि व्यवहार व अशुद्ध नय की अपेक्षा ही आचार्य कुंदकुंद आत्मा में कर्तृत्व मानते हैं इसलिये उनके अनुसार व्यवहार नय की अपेक्षा आत्मा द्रव्यकर्म, नोकर्म एवं घटपटादि कर्मों का कर्ता है और अशुद्ध निश्चय नय की अपेक्षा से भावकर्मों का कर्ता है । समयसार २५ में आचार्य ने कहा है कि व्यवहार नय से आत्मा घट, पट, रथ आदि कार्यों को करता है, स्पर्शनादि पंचेन्द्रियों को करता है ज्ञानावरणादि द्रव्य कर्मों तथा क्रोधादि भावकर्मों को करता है।' व्यवहार नय से जीव ज्ञानावरणादि कर्मों, औदारिकादि शरीर एवं आहार पर्याप्तियों के योग्य पुद्गल रूप नोकर्मों और बाह्यपदार्थ घटपटादि का कर्ता है किन्तु अशुद्ध निश्चय नय से रागद्वेषादि भावकर्मों का कर्ता है। २६ पंचास्तिकाय की तात्पर्य वृत्ति २७ में भी कहा गया है कि अशुद्ध निश्चय नय की दृष्टि में शुभाशुभ परिणामों का परिणमन होना ही आत्मा का कर्तृत्व है। अतः व्यवहारनय या उपचार से ही आत्मा ज्ञानावरणादि कर्मों का कर्ता है। 'कर्मबन्ध का निमित्त होने के कारण उपचार से कहा जाता है कि जीव ने कर्म किये हैं,
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