________________
भगवान् महावीर : समताधर्म के प्ररूपक
४१ से मिलता है। किन्तु भगवान् महावीर और बुद्ध ने जो क्रान्ति की की इस साधना के लिए यह आवश्यक है कि अपनी प्रवृत्ति संकुचित
और उसमें जो सफलता पाई वह अद्भुत है। इसीलिए इन दोनों की जाय, क्योंकि मनुष्य चाहे. तब भी सभी जीवों के सुख के लिए महापुरुषों का नाम आज तक लाखों लोगों की जुबान पर है। ' चेष्टा अकेला नहीं कर सकता। अपने आस-पास के जीवों को भी वह
संक्षिप्त चरित्र : महावीर का जन्म क्षत्रियकुंडपुर में (वर्तमान बड़ी मुश्किल से सुखी बना सकता है। तब संसार के सभी जीवों के बसाड़) जो पटना से कुछ ही मील दूर है, हुआ था। उनके पिता का सुख की जिम्मेदारी कोई अकेला कैसे ले सकता है? किन्तु इसका नाम सिद्धार्थ और माता का नाम त्रिशला था। उनके पिता ज्ञातृवंश के मतलब यह नहीं है कि उसे कुछ न करना चाहिए। उसे अपनी मैत्रीक्षत्रिय थे और वे काफी प्रभावशाली रहे होंगे, क्योंकि उनकी पत्नी भावना का विस्तार करना चाहिए तथा अपने शारीरिक व्यवहार को, त्रिशला वैशाली के अधिपति चेटक की बहन थी। इसी सम्बन्ध के अपनी आवश्यकताओं को इतना कम करना चाहिए कि उससे दूसरों कारण तत्कालीन मगध, वत्स, अवन्ती आदि के राजाओं के साथ भी को जरा भी कष्ट न हो। वही व्यवहार किया जाय, उसी प्रवृत्ति और उनका सम्बन्ध होना स्वाभाविक है, क्योंकि चेटक की पुत्रियों के उसी चीज को स्वीकार किया जाय, जो अनिवार्य हो। अपनी प्रवृत्ति विवाह इन सब राजाओं के साथ हुए थे। चेटक की एक पुत्री का को, अनिवार्य प्रवृत्ति को भी अप्रमाद पूर्वक किया जाय। यही संयम विवाह भगवान् महावीर के बड़े भाई के साथ हुआ था। संभव है है और यही निवृत्ति-मार्ग है। भगवान् को अपने धर्म के प्रचार में इस सम्बन्ध के कारण भी कुछ इस संयम-मार्ग का अवलंबन भगवान् महावीर ने अप्रमत्त अनुकूलता हुई हो।
भाव से किया। आत्मा को शुद्ध करने के लिए विज्ञान, सुख और माता-पिता ने उनका नाम वर्धमान रखा था, क्योंकि उनके शक्ति से परिपूर्ण करने के लिए और दोषावरणों को हटाने के लिए जन्म से उनकी सुख-सम्पत्ति में वृद्धि हुई थी। किन्तु इसी सम्पत्ति की उन्होंने जो पराक्रम किया उसकी गाथा आचारांग के अतिप्राचीन नि:सारता से प्रेरित होकर उन्होंने त्याग और तपस्या का जीवन अंश-प्रथम श्रुतस्कंध में ग्रथित है उससे एक दीर्घ तपस्वी की साधना स्वीकार किया। उनकी घोर अत्युत्कट साधना के कारण उनका नाम का साक्षात्कार होता है उस चरित्र में ऐसी कोई दिव्य बात नहीं, ऐसा महावीर हो गया और उसी नाम से वे प्रसिद्ध हुए। वर्धमान नाम को कोई चमत्कार वर्णित नहीं है जो अप्रतीतिकर हो या अंशतः भी लोग भूल तक गये।
असत्य या असंभव मालूम हो। वहाँ उनका शुद्ध मानवीय चरित्र भगवान महावीर के माता-पिता भ० पार्श्वनाथ के अनुयायी वर्णित है, वह अपूर्णता से पूर्णता की ओर प्रस्थित एक अप्रमत्त थे। अतएव बाल्यकाल से ही उनका संसर्ग त्यागी-महात्माओं से संयमी का चरित्र है। उस चरित्र का और जैन धर्म के आचरण के हआ, यही कारण है कि उनको सांसारिक वैभवों की अनित्यता और विधि-निषेधों का मिलान करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि भगवान् निस्सारता का ज्ञान हुआ। संसार की अनित्यता और अशरणता के ने जिस प्रकार की साधना खुद की है उसी मार्ग पर दूसरों को ले जाने अनुभव ने ही उनको भी त्याग और वैराग्य की ओर झुकाया। उन्होंने के लिये उनका उपदेश रहा है। जिसका उन्होंने अपने जीवन में और सुख, वैभव के भोग में नहीं, त्याग में देखा। ३० वर्ष की पालन नहीं किया ऐसी कोई कठिन तपस्या या ऐसा कोई आचार युवावस्था में सब कुछ छोड़ कर त्यागी बन गये। ३० वर्ष तक भी नियम दूसरों के लिए उन्होंने नहीं बताया। जो उन्होंने गृहवास स्वीकार किया, उसका कारण भी अपने-माता- गृहत्याग के बाद वे निर्वस्त्र ही रहे। अतएव कठोर शीत, पिता और बड़े भाई की इच्छा का अनुसरण था। संसार में रहते हुए गरमी, डांस-मच्छर और नाना क्षुद्र-जन्तु-जन्य परिताप को उन्होंने भी उनका मन सांसारिक पदार्थों में लिप्त नहीं था, अंतिम एक वर्ष समभावपूर्वक सहा। किसी घर को अपना घर नहीं बनाया। श्मशान में तो उन्होंने अपना सब कुछ दीन-हीन जनों को दे दिया था और और अरण्य, खण्डहर और वृक्षछाया- ये ही इनके आश्रयस्थान थे। अकिंचन होकर घर छोड़कर निकल गये थे।
नग्न होने के कारण भगवान् को चपल बालकों ने अपने खेल का
साधन बनाया, उन पर पत्थर-कंकड़ फेंके। वे रात को निद्रा का संयम और साधना :
त्यागकर बराबर ध्यानस्थ रहे। निद्रा से सताये जाने पर थोड़ा चंक्रमण भगवान् महावीर की तपस्या संयममूलक थी। महावीर के किया। कभी-कभी चौकीदारों ने उन्हें काफी तकलीफें दी। गरम पानी पूर्व भ० पार्श्वनाथ ने पंचाग्नि तप, वृक्ष पर लटकना, लोहे के काटों और भिक्षाचर्या से जैसा मिल गया अपना काम चला लिया। किन्तु पर सोना आदि तापसी तपस्या के स्थान पर अहिंसा, सत्य, अचौर्य, कभी भी अपने निमित्त बना अन्न-पान स्वीकार नहीं किया। बारह वर्ष अपरिग्रह आदि पर जोर दिया था। उसी परम्परा का विकास महावीर की कठोर तपश्चर्या में, परम्परा कहती है कि, उन्होंने सब मिलाकर ने किया। उनकी प्रतिज्ञा थी कि 'किसी प्राणी को पीड़ा न देना। सर्व ३५० से अधिक दिन आहार नहीं किया। मान-अपमान को उस सत्त्वों से मैत्री रखना। जीवन में जितनी भी बाधाएँ उपस्थित हों उन्हें जितेन्द्रिय महापुरुष ने समभाव से सहा। उन्हें साधक जीवन में कभी बिना किसी दूसरे की सहायता के समभावपूर्वक सहन करना।' संयम औषध के प्रयोग की आवश्यकता ही प्रतीत उन्हीं हुई, इतने वे
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org