Book Title: Bhupendranath Jain Abhinandan Granth
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 55
________________ जैन विद्या के आयाम खण्ड-७ उत्पन्न हो और फिर उसका दमन किया जाय तब हानि की संभावना यहाँ मनोनिरोध का अभिप्राय विषय-राग की निवृत्ति और है। किन्तु इच्छा ही समाप्त हो जाय तो उसके दमन का प्रश्न ही इन्द्रियनिरोध का आशय इन्द्रियों का विषय प्रवृत्ति का निवारण है। कहाँ? और तब तज्जनित हानि के लिए भी अवकाश कहाँ ? फ्रायड मनोनिरोध या मनोविजय का तात्पर्य विषय-राग का दमन नहीं हो शुद्ध भौतिकवादी या देहमनोवादी थे। वे मनुष्य को मूल प्रवृत्तियों सकता, क्योंकि सर्वत्र संयम, संवर निर्जरा आदि के लिए विषयऔर संवेगों का पुतला मात्र मानते थे। मनुष्य के आध्यात्मिक स्वरूप विराग की ही अपेक्षा की गई है। विषय-राग का दमन और विषयकी कल्पना भी उनके मस्तिष्क में नहीं थी। अत: वे यह मान ही नहीं विराग दोनों में महान् अन्तर है। प्रथम में राग सद्भाव है, सिर्फ वह सकते थे कि इच्छाएँ समाप्त भी हो सकती हैं। उनकी मान्यता तो यह दबा हुआ है। द्वितीय में राग की सत्ता ही नहीं है। दूसरी बात रागद्वेष थी कि इच्छाएँ सदा उत्पन्न होती रहेंगी और उनकी तृप्ति भी सदा का कभी दमन नहीं हो सकता उनकी अभिव्यक्ति मात्र का निरोध हो आवश्यक होगी। आदमी के आध्यात्मिक स्वरूप को तो भारतीय सकता है। इच्छाओं के दमन का तात्पर्य बलपूर्वक उनकी तृप्ति अन्तर्दृष्टि ही देखने में समर्थ हुई और उसने पाया है कि आत्मा रोकना मात्र है। इच्छा की अनुभूति को नहीं रोका जा सकता। और रागद्वेष भिन्न-भिन्न हैं। आत्मा तो ज्ञाता-द्रष्टा-मात्र है। रागद्वेष भगवान् कुन्दकुन्द भी 'सीलपाहुड' में सिद्धों को 'विसयविरत्ता मोहजनित है। अत: मोह की समाप्ति से रागद्वेष को समाप्त किया जिदिंदिया२७' कहकर विषयविरक्तता और जितेन्द्रियता दोनों की जा सकता है और रागद्वेष की समाप्ति से इच्छाओं का मूलाच्छेद आवश्यकता प्रतिपादित करते हैं। धम्मपद के 'कायेन संवरो साधु... हो जाता है। तब न तो उनके दमन की आवश्यकता होती है न मनसा संवरो साधु२८' इस प्रकार धम्मपद में भी इन्द्रिय और मन उन्मुक्त भोग की। यह एक शुद्धि का मार्ग है जिसमें अवांछनीय दोनों के संवर (संयम) का उपदेश दिया गया है। अनात्मतत्त्व का विसर्जन किया जाता है। इस ज्ञानजन्य विषय- पं० टोडरमल जी ने विषयविरक्ति के अभाव में प्रतिज्ञा विराग को 'शम' भी कहा गया है, क्योंकि विषय-विराग से आत्मा धारण करने की कटु आलोचना की है, तथापि विरक्ति होने पर में शान्ति की स्थिति उत्पन्न होती है। प्रतिज्ञा आवश्यक बतलाई है। इसका अर्थ यही है कि वे भी विरक्ति विषय-विराग के साथ दमन का भी विधान- किन्तु और इन्द्रिय-निग्रह दोनों को आवश्यक समझते हैं२९॥ विषय-विराग के साथ जैन आचार और अन्य भारतीय आचारों में इन्द्रिय दमन का विधान क्यों यहाँ विचारणीय है कि 'दमन' का भी विधान किया गया है। जैन आगमों में जहाँ भी संयम, विषय-विराग के साथ इन्द्रिय-दमन का विधान क्यों किया गया है? संवर, निर्जरा अथवा इच्छानिवृत्तिरूप तप का प्रकरण आया है सर्वत्र क्या दोनो की व्यवस्था अलग-अलग है? विषयेविरक्ति से ही स्वयमेव 'शम' और 'दम' अथवा विषय-विराग और इन्द्रिय-निग्रह की आवश्यकता इन्द्रियनिग्रह नहीं हो जाता? इन्द्रियदमन का औचित्य क्या है? यह प्रतिपादित की गई है। 'शम' से तात्पर्य विषयविराग से है और 'दम' कहाँ तक मनोविज्ञानसंगत है? यह विचार ही इस शोधनिबन्ध का से तात्पर्य दमन यह इन्द्रियनिग्रह से है। संवर के साधन के रूप में लक्ष्य है। इनका पर्यायवाची की तरह प्रयोग किया गया है जैसा कि नीचे के इन्द्रिय दमन की मनोवैज्ञानिकता- उपर्युक्त उद्धरणों में उद्धरणों से स्पष्ट है। पं० दौलतराम जी ने 'छहढाला' में कहा है- ध्यान देने योग्य बात यह है कि दमन का विधान इन्द्रियों के प्रसंग 'शम दम तें जो कर्म न आवे सो संवर आदरिये'२२ और 'कार्तिकेयानुप्रेक्षा में ही किया गया है, मनोगत विषयवासना के प्रसंग में नहीं। की पूर्वोद्धृत गाथा में विषय-विराग और इन्द्रिय-संवृत्ति को संवर हेतु विषयवासना के प्रसंग में शम या विरक्ति को ही आवश्यक बतलाया बतलाया गया है। कहीं-कहीं शम और दम की जगह मनोविजय और गया है। यहीं पर दमन की मनोवैज्ञानिकता निहित है। इन्द्रियविजय अथवा कषायविजय और इन्द्रियविजय शब्द प्रयुक्त हुए सामान्य धारणा यह है कि इन्द्रियों की विषय प्रवृत्ति-सर्वथा हैं। कषाय के अन्तर्गत विषयरति का समावेश हो जाता है २३ और मनोगत विषयवासना पर आश्रित है। मन की विषयासक्ति के कारण सम्पूर्ण कषायों का मन के विषय होने के कारण मन शब्द से ही इच्छाएँ पैदा होती हैं और इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों में प्रवृत्त प्रतिनिधित्व हो जाता है। स्वामिकुमार ने 'मण-इंदियाण-विजई २४' होती हैं। इसलिए मन के विषयविरक्त हो जाने पर इच्छाएँ समाप्त हो और 'इंदिय-कसाय-विजई२५' शब्दों द्वारा निर्जरा के लिए मनोविजय जाती हैं। अत: इन्द्रियों पर अलग से निग्रह आवश्यक नहीं है। और इन्द्रियनिग्रह अथवा कषायविजय और इन्द्रियनिग्रह दोनों की इच्छाओं के दो स्रोत--पर यह धारणा तथ्य के विपरीत आवश्यकता बतलाई है। पञ्चाध्यायीकार ने संयम में मन और इन्द्रिय है। यदि हम सूक्ष्म दृष्टि से देखें तो पायेंगे कि इच्छाओं से मुक्ति के दोनों के निग्रह पर जोर दिया है लिए विषयों से विरक्ति ही पर्याप्त नहीं है। क्योंकि इच्छाएँ केवल पञ्चानामिन्द्रियाणां मनसश्च निरोधनात् ।। विषयासक्ति से ही उत्पन्न नहीं होती, इन्द्रियों के व्यसन या भोगाभ्यास स्यादिन्द्रियनिरोधाख्यः संयमः प्रथमो मतः २६।। से भी उत्पन्न होती हैं। यह एक शुद्ध शारीरिक या स्नायु-तन्त्रीय साहस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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