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जैन विद्या के आयाम खण्ड-७
विरोध है यह उन मनीषियों की चतुरता है। अत: उपनिषदों में तथा प्रकार की प्रवृत्तियों से सम्पूर्ण याज्ञिक विधान प्रतिष्ठित है।१५ - भगवान् महावीर और बुद्ध ने इस वैदिक कर्मकाण्ड की तीव्र आलोचना इसी तरह औपनिषदिक ऋषियों का भी विश्वास याज्ञिक की। वे इस वैदिक कर्मकाण्ड और वेद प्रामाण्य के प्रबलतम विरोधी विधान में दृष्टिगोचर नहीं होता है। वे यज्ञादि क्रियाओं को यद्यपि थे तथा उनके स्थान पर अहिंसाप्रधान धर्म का प्रचार करने वालों में परमार्थ प्राप्ति में आवश्यक नहीं समझते हैं१६ तथापि अधिकारी श्रेष्ठतम थे। बौद्धों पर याज्ञिक क्रियाकाण्ड की इतनी प्रतिक्रिया हुई भेद से आश्रम-धर्म की व्यवस्था के लिए उनका पूर्ण निराकरण भी कि उन्हें आत्मा शब्द से ही घृणा हो गई। चूँकि आत्मा के निमित्त से नहीं करते हैं। इस तरह उनकी प्रवृत्ति एक तरफ समन्वयात्मक है१७ स्वर्ग की प्राप्ति के लिए लोगों को प्रलोभित किया जाता था अत: उस और दूसरी तरफ निन्दात्मक१८। जैसे कहीं-कहीं पुरोहितों की खानेशाश्वत आत्मतत्त्व को रागद्वेष की अमरबेल मानकर उसका खण्डन पीने की लोलुपता को देखकर उनको एवं उनके याज्ञिक क्रियाही कर दिया१३। जैन और बौद्ध ग्रन्थों में इन यज्ञों के खण्डन में जो कलापों को एक घृणा की वस्तु बतायी गयी है। एक स्थान पर तो तर्कपूर्ण युक्तियाँ प्रदर्शित की गई हैं उन्हें देखकर कोई भी सहृदय उन्हें कुत्तों की एक पाँत में खड़े जैसे भी दिखाया है। वे लोलुपतापूर्वक व्यक्ति पुन: इन यज्ञों की तरफ देखने का साहस न करेगा। स्याद्वादमञ्जरी कहते हैं- 'ओमदा ओम् पिवा, ओम देवों वरुण: आदि (ॐ मुझे में एक कारिका उद्धृत है
खाने दो, ॐ मुझे पीने दो, देव वरुण)१९ इस लेन-देन के व्यापार .. देवोपहारव्याजेन यज्ञव्याजेन ये ऽथवा।
के कारण ही देवों का भी दर्जा बहुत निम्न और लोलुपतापूर्ण घ्रन्ति जन्तून् गतवृणा घोरां ते यान्ति दुर्गतिम।। दिखलाई पड़ता है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने इसका अच्छा वर्णन
अर्थात्- जो लोग देव-प्रसादार्थ अथवा यज्ञ के बहाने घृणा किया है जिसमें इन्द्र को 'श्वान' की उपमा दी गई है। इससे वैदिक से रहित होकर प्राणियों की हिंसा करते हैं वे घोर अन्धकार से पूर्ण देवों की प्रतिष्ठा पर धक्का पहँचता है। दुर्गति में जाते हैं।
वेद को प्रमाण मानने वाले सांख्याचार्यों ने इन यज्ञों की वावरि ब्राह्मण का शिष्य पुण्णक भगवान् बुद्ध से निम्न निन्दा करते हुए कहा हैप्रश्न पूछता है- 'भगवन्! किस कारण से ऋषियों, मनुष्यों, क्षत्रियों, यूपं छित्वा पशून् हत्वा कृत्वा रुधिरकर्दमम्। ब्राह्मणों ने इस लोक में देवताओं के लिए पृथक्-पृथक् यज्ञ कल्पित यद्येवं गम्यते स्वर्गे नरके केन गम्यते।। किए हैं? यह पूछता हूँ भगवन! बतावें।'
अर्थ-यूपादि (वृक्षादि) का छेदन करके, पशुओं की हिंसा भगवान् बुद्ध -'जिन किन्हीं ऋषियों, मनुष्यों, क्षत्रियों, करके तथा खून का कीचड़ करके यदि स्वर्ग की प्राप्ति होती है तो ब्राह्मणों ने इस लोक में देवताओं के लिए पृथक्-पृथक् यज्ञ कल्पित वह कौन-सा घोर कर्म है जिसके करने से नरक जाया जाता है। तथा किए हैं, उन्होंने इस जन्म की चाह रखते हुए जरा आदि से अमुक्त सांख्यकारिका के प्रारम्भ में दैहिक, दैविक और भौतिक दुःखों से होकर ही किए।'
आत्यन्तिक निवृत्ति का उपाय व्यावहारिक (औषधादि) साधनों की पुण्णक -'जिन किन्हीं ने यज्ञ कल्पित किए, भगवन्! क्या तरह श्रौतविहित यज्ञप्रक्रिया को नहीं माना हैवे यज्ञ-पथ में अप्रमादी थे? हे मार्ष, क्या वे जन्म-जरा को पार दृ ष्टवदानुश्रविकः सह्यविशुद्धिक्षयातिशययुक्तः। हुए? हे भगवान् आप से यह पूछता हूँ। मुझे बतावें।'
तद्विपरीतः श्रेयान् व्यक्ताव्यक्तज्ञविज्ञानात्।।२।। भगवान बुद्ध -'वे जो आशंसन करते, स्तोम करते, अर्थ-लौकिक (दृष्ट) उपायों की तरह श्रुतिविहित यज्ञ भी अभिजल्प करते, हवन करते हैं सो वह अपने लाभ के लिए या दु:खों से आत्यन्तिक निवृत्ति नहीं कर सकते क्योंकि श्रुतिविहित यज्ञ कामनाओं की पूर्ति के लिए करते हैं। वे यज्ञ के योग से, भव के राग विशुद्धि से रहित, क्षय और अतिशय से युक्त हैं२०। इसके विपरीत से अनुरक्त हो जन्म-जरा को पार नहीं हुए, ऐसा मैं कहता हूँ।' प्रकृति-पुरुष का ज्ञान ही श्रेयकारी है।
पुण्णक -'हे मार्ष! यदि यज्ञ के योग से, यज्ञों के द्वारा वेद को ही प्रमाण स्वीकार करने वाले वेदान्तियों ने भी जन्म-जरा को पार नहीं हुए, तो मार्ष, फिर लोक में कौन देव जन्म- हिंसाप्रधान यज्ञों की निर्ममता देखकर कहा कि जो लोग पशुओं की जरा को पार हुए? भगवान्! उसे बतलावें।'
हिंसा करके यज्ञ करते हैं वे घोर अंधकार में विलीन हो जाते हैं भगवान् बुद्ध - जिसे लोक में कहीं भी तृष्णा नहीं है, जो क्योंकि हिंसा न तो कभी धर्म रही है, न थी और न रहेगी। शान्त, दुश्चरित रहित, रागादि से विरत, आशारहित है, वह जन्म- अन्ये तमसि मज्जामः पशुभिर्ये र्यजामहे। जरा को पार कर गया, ऐसा मैं कहता हूँ।१४
हिंसा नाम भवेद्धों न भूतो न भविष्यति।।२।। इस तरह भगवान् बुद्ध के अनुसार वैदिक कर्मकाण्ड विशुद्धि- इस वरह वेदान्तियों ने हिंसाप्रधान धर्म का त्रैकालिक का साधक नहीं है, वह तो सिर्फ लेन-देनरूपी व्यापार की भावना पर निषेध करके अहिंसा प्रधान धर्म की प्रतिष्ठापना की। प्रतिष्ठित है। अर्थात् 'तुम मुझे यह दो, मैं तुम्हें यह देता हूँ' इस यशस्तिलकचम्पू में एक प्रसंङ्ग आता है जिसमें राजा यशोधर
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