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जैन धर्म की आध्यात्मिक जीवनदृष्टि
अर्थात् आत्मेतर वस्तुओं में अपनत्व का भाव और पदार्थ को कहानी है।" किन्तु यह एक मिथ्या धारणा है। संघर्ष सदैव निराकरण परम मूल्य मानना यही भौतिकवाद या मिथ्यादृष्टि का लक्षण है। का विषय रहा है। कोई भी चेतन सत्ता संघर्षशील दशा में नहीं रहना आत्मवादी या अध्यात्मवादी व्यक्ति की दृष्टि पदार्थ-केन्द्रित न चाहती, वह संघर्ष का निराकरण करना ही चाहती है। यदि संघर्ष होकर आत्म-केन्द्रित होती है। वह आत्मा को ही परम मूल्य निराकरण की वस्तु है तो उसे स्वभाव नहीं कहा जा सकता है। संघर्ष मानता है और अपने स्वस्वरूप या स्वभावदशा की उपलब्धि को मानव इतिहास का एक तथ्य हो सकता है, किन्तु वह मनुष्य के ही अपनी साधना का लक्ष्य बनाता है, इसे ही जैन पारिभाषिक विभाव का इतिहास है, स्वभाव का नहीं। चैतसिक जीवन में तनाव शब्दावली में सम्यग्दृष्टि कहा गया है। भौतिकवाद मिथ्यादृष्टि है या विचलन पाये जाते हैं, किन्तु वे जीवन के स्वभाव नहीं हैं क्योंकि और अध्यात्मवाद सम्यकदृष्टि हैं।
जीवन की प्रक्रिया सदैव ही उन्हें समाप्त करने की दिशा में प्रयासशील
है। चैतसिक जीवन का मूल स्वभाव यही है कि वह बाह्य और आत्मा का स्वरूप एवं साध्य
आन्तरिक उत्तेजनाओं एवं संवेदनाओं से उत्पन्न विक्षोभों को समाप्त यहाँ स्वाभाविकरूप से यह प्रश्न उठ सकता है कि जैनधर्म कर, समत्व को बनाये रखने का प्रयास करता है। अत: जैनधर्म में में आत्मा का स्वरूप क्या है? आचारांगसत्र में आत्मा के स्वरूप- समता को आत्मा या चेतना का स्वभाव कहा गया है और उसे ही लक्षण को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि जो आत्मा है वह विज्ञाता धर्म के रूप में परिभाषित किया गया है। यह सत्य है कि जैनधर्म में है और जो विज्ञाता है वही आत्मा है। इस प्रकार ज्ञाताभाव में स्थित धर्म-साधना का मूलभूत लक्ष्य कामना, आसक्ति, राग-द्वेष और होना ही स्व स्वभाव में स्थित होना है। आधुनिक मनोविज्ञान में वितर्क आदि मानसिक असन्तुलनों और तनावों को समाप्त कर चेतना के तीन पक्ष माने गये है।-ज्ञानात्मक, भावात्मक और संकल्पात्मक, अनासक्त और निराकुल वीतराग चेतना की उपलब्धि माना गया है। उसमें भावात्मक और संकल्पात्मक पक्ष वस्तुतः भोक्ताभाव और आसक्ति या ममत्वबुद्धि राग और द्वेष के भाव उत्पन्न कर व्यक्ति को कर्ताभाव के सूचक हैं। जब तक आत्म कर्ता या भोक्ता होता है तब पदार्थापक्षी बनाती है। आसक्त व्यक्ति अपने को 'पर' में खोजता है। तक वह स्व स्वरूप को उपलब्ध नहीं होता क्योंकि यहाँ चित्त- जबकि अनासक्त या वीतराग दृष्टि व्यक्ति को स्व में केन्द्रित करती है। विकल्प या आकांक्षा बनी रहती है। अत: उसके द्वारा चित्त-समाधि या दूसरे शब्दों में, जैनधर्म में वीतरागता की उपलब्धि को ही जीवन का आत्मोपलब्धि संभव नहीं है। विशुद्ध ज्ञाताभाव या साक्षी भाव ही परम लक्ष्य घोषित किया गया है। क्योंकि वीतराग ही सच्चे अर्थ में ऐसा तथ्य है जो आत्मा को निराकुंल समाधि की अवस्था में स्थित समभाव में अथवा साक्षीभाव में स्थित रह सकता है जो चेतना कर दुःखों से मुक्त कर सकता है।
समभाव या साक्षी भाव में स्थित रह सकती है वही निराकुल दशा को एक अन्य दृष्टि से जैनधर्म में आत्मा का स्वरूप-लक्षण प्राप्त होती है और जो निराकुल दशा को प्राप्त होती है, वहीं शाश्वत समत्व भी बताया गया है। भगवतीसूत्र में गौतम ने महावीर के सुखों का आस्वाद करती है। जैनधर्म में आत्मोपलब्धि या स्वरूपसम्मुख दो प्रश्न उपस्थित किये। आत्मा क्या है और उसका साध्य उपलब्धि को, जो जीवन का लक्ष्य माना गया है, वह वस्तुत: क्या है? महावीर ने इन प्रश्नों के जो उत्तर दिये थे वे जैन धर्म के वीतराग दशा में ही सम्भव है और इसलिए प्रकारान्तर से वीतरागता हार्द को स्पष्ट कर देते हैं। उन्होंने कहा था कि आत्मा समत्व स्वरूप को भी जीवन का लक्ष्य कहा गया है। वीतरागता का ही दूसरा नाम है और समत्व की उपलब्धि कर लेना यही आत्मा का साध्य है। समभाव या साक्षीभाव हैं, यही समभाव हमारा वास्तविक स्वरूप है। आचारांगसूत्र में भी समता को धर्म कहा गया है। वहाँ समता को इस अवस्था को प्राप्त कर लेना ही हमारे जीवन का परम साध्य है। धर्म इसलिए कहा गया है कि वह हमारा स्व स्वभाव है और वस्तु स्वभाव ही धर्म है (वत्थु सहावो धम्मो) यह धर्म की दूसरी परिभाषा साध्य और साधना मार्ग का आत्मा से अभेद है। जैन दार्शनिकों के अनुसार स्वभाव से भिन्न आदर्श की कल्पना जैनधर्म में साधक, साध्य और साधनामार्ग तीनों ही आत्मा अयथार्थ है। जो हमारा मूल स्वभाव और स्वलक्षण है वही हमारा से अभिन्न माने गये हैं। आत्मा ही साधक है, आत्मा ही साध्य है और साध्य हो सकता है। जैन परिभाषा में नित्य और निरपवाद वस्तु धर्म आत्मा ही साधना मार्ग है। अध्यात्मतत्त्वालोक में कहा गया है कि ही स्वभाव है। आत्मा का स्वस्वरूप और आत्मा का साध्य दोनों ही आत्मा ही संसार है और आत्मा ही मोक्ष है, जब तक आत्मा कषाय समता है। यह बात जीववैज्ञानिक दृष्टि से भी सत्य सिद्ध होती है। और इन्द्रियों के वशीभूत है, वह संसार है। किन्तु जब वह इन्हें अपने आधुनिक जीव विज्ञान में भी समत्व के संस्थापन को जीवन का वशीभूत कर लेता है तो मुक्त कहा जाता है"। आचार्य अमृतचन्द्रसूरी लक्षण बताया गया है। यद्यपि द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद 'समत्व' के समयसार की टीका में लिखते हैं कि पर द्रव्य का परिहार और शुद्ध स्थान पर 'संघर्ष' को जीवन का स्वभाव बताता है और कहता है कि आत्म तत्त्व की उपलब्धि ही सिद्धि है १२। आचार्य हेमचन्द्र ने भी "संघर्ष ही जीवन का नियम है, मानवीय इतिहास वर्ग संघर्ष की साध्य और साधक में भेद बताते हुए योगशास्त्र में कहा है कि कषाय
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