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जैन धर्म की आध्यात्मिक जीवनदृष्टि
जैन पर्वो की आध्यात्मिक प्रकृति
न केवल जैन साधना की प्रकृति अध्यात्मवादी है अपितु जैन पर्व भी मूलत: अध्यात्मवादी ही हैं। जैन पर्व आमोद-प्रमोद के लिए न होकर आत्म साधना और तप के लिए होते हैं। उनमें मुख्यतः तप; त्याग, व्रत एवं उपवासों की प्रधानता होती है। जैनों के प्रसिद्ध पर्वों में श्वेताम्बर परम्परा में पर्युषण पर्व और दिगम्बर परम्परा में दशलक्षण पर्व हैं जो भाद्रपद में मनाये जाते हैं। इन दिनों में जिन प्रतिमाओं की पूजा, उपवास आदि व्रत तथा धर्म ग्रन्थों का स्वाध्याय यही साधकों की दिनचर्या के प्रमुख अंग होते हैं। इन पर्वो के दिनों में जहाँ दिगम्बर परम्परा में प्रतिदिन क्षमा, विनम्रता, सरलता पवित्रता, सत्य, संयम, ब्रह्मचर्य आदि दस धर्मों (सद्गुणों) की विशिष्ट साधना की जाती है, वहां श्वेताम्बर परम्परा में इन दिनों में प्रतिक्रमण के रूप में आत्म पर्यावलोचन किया जाता है। श्वेताम्बर परम्परा का अन्तिम दिन संवत्सरी पर्व के नाम से मनाया जाता है और इस दिन समग्र वर्ष के चारित्रिक स्खलन या असदाचरण और वैर-विरोध के लिए आत्म पर्यावलोचन (प्रतिक्रमण ) किया जाता है एवं प्रायश्चित्त प्रहण किया जाता है इस दिन शत्रु मित्र आदि सभी से क्षमा-याचना की जाती है। इस दिन जैन साधक का मुख्य उद्घोष होता है- मैं सब जीवों को क्षमा प्रदान करता हूं और सभी जीव मुझे क्षमा प्रदान करें। मेरी पृधी प्राणीवर्ग से मित्रता है और किसी से कोई वैर-विरोध नहीं है। इन पर्व के दिनों में अहिंसा का पालन करना और करवाना एक प्रमुख कार्य होता है। प्राचीन काल में अनेक जैनाचार्यों ने अपने प्रभाव से शासकों द्वारा इन दिनों को अहिंसक दिनों के रूप में घोषित करवाया था। इस प्रमुख पर्व के अतिरिक्त अष्टाहिका पर्व अतुपंचमी तथा विभिन्न तीर्थकरों के गर्भ प्रवेश, जन्म, दीक्षा, कैवल्य प्राप्ति एवं निर्वाण दिवसों को भी पर्व के रूप में मनाया जाता है। इन दिनों में भी सामान्यतया व्रत रखा जाता है और जिन प्रतिमाओं की विशेष समारोह के साथ पूजा की जाती है। दीपावली का पर्व भी भगवान् महावीर के निर्वाण दिवस के रूप में जैन समुदाय के द्वारा बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता है।
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लौट आये। उन्होंने चतुर्विध संघ की स्थापना की तथा जीवन भर उसका मार्ग-दर्शन करते रहे। जैनधर्म सामाजिक कल्याण और सामाजिक सेवा को आवश्यक तो मानता है, किन्तु वह व्यक्ति के सुधार से समाज के सुधार की दिशा में आगे बढ़ता है। व्यक्ति समाज की प्रथम इकाई है, जब तक व्यक्ति नहीं सुधरेगा तब तक समाज नहीं सुधर सकता है। जब तक व्यक्ति के जीवन में नैतिक और आध्यात्मिक चेतना का विकास नहीं होता तब तक सामाजिक जीवन में सुव्यवस्था और शान्ति की स्थापना नहीं हो सकती। जो व्यक्तित्व अपने स्वार्थों और वासनाओं पर नियंत्रण नहीं कर सकता वह कभी सामाजिक हो ही नहीं सकता। लोकसेवक और जन-सेवक अपने व्यक्तिगत स्वार्थों और द्वन्द्वों से दूर रहें यह जैन आचार संहिता का आधारभूत सिद्धान्त है चरित्रहीन व्यक्ति सामाजिक जीवन के लिए घातक ही सिद्ध होगें। व्यक्तिगत स्वार्थों की पूर्ति के निमित्त जो संगठन या समुदाय बनते हैं, वे सामाजिक जीवन के सच्चे प्रतिनिधि नहीं हैं। क्या चोर, डाकू और शोषकों का समाज, समाज कहलाने का अधिकारी है ? महावीर की शिक्षा का सार यही है कि वैयक्तिक जीवन में निवृत्ति ही सामाजिक कल्याण के क्षेत्र में प्रवृत्ति का आधार बन सकती है। प्रश्नव्याकरणसूत्र में कहा गया है कि भगवान का यह सुकथित प्रवचन संसार के सभी प्राणियों के रक्षण एवं करुणा के लिए है। " जैन साधना में अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह- ये जो पाँच व्रत माने गये हैं वे केवल वैयक्तिक साधना के लिए नहीं है, वे सामाजिक मंगल के लिए भी हैं। वे आत्म शुद्धि के साथ ही हमारे सामाजिक सम्बन्धों की शुद्धि का प्रयास भी है। जैन दार्शनिकों ने आत्महित की अपेक्षा लोकहित को सदैव ही महत्त्व दिया है। जैनधर्म में तीर्थंकर गणधर और सामान्य केवली के जो आदर्श स्थापित किये गये हैं और उनमें जो तारतम्यता निश्चत की गई उसका आधार विश्व कल्याण वर्ग कल्याण और व्यक्ति कल्याण की भावना ही है। इस त्रिपुटी में विश्व कल्याण के लिए प्रवृत्ति करने के कारण ही तीर्थंकर को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। स्थानांगसूत्र में ग्रामधर्म, नगरधर्म, राष्ट्रधर्म आदि की उपस्थिति इस बार का स्पष्ट प्रमाण है कि जैन साधना केवल आत्महित या वैयक्तिक विकास तक ही सीमित नहीं है वरन् उसमें लोकहित या लोक कल्याण की प्रवृत्ति भी पायी जाती है३१।
जैन अध्यात्मवाद और लोक कल्याण का प्रश्न
यह सत्य है कि जैनधर्म संन्यासमार्गी धर्म है। उसकी साधना में आत्मशुद्धि और आत्मोपलब्धि पर अधिक जोर दिया गया
है, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि जैन धर्म में लोक मंगल या लोक क्या जैनधर्म जीवन का निषेध सिखाता है?
कल्याण का कोई स्थान ही नहीं है। जैनधर्म यह तो अवश्य मानता है कि वैयक्तिक साधना की दृष्टि से एकाकी जीवन अधिक उपयुक्त है, किन्तु इसके साथ ही साथ वह भी मानता है कि उस साधना से प्राप्त सिद्धि का उपयोग सम्माजिक कल्याण की दिशा में होना चाहिए। महावीर का जीवन स्वयं इस बात का साक्षी है, कि १२ वर्षों तक एकाकी साधना करने के पश्चात् वे पुनः सामाजिक जीवन में
जैनधर्म में तप त्याग की जो महिमा गायी गई है उसके आधार पर यह भ्रान्ति फैलाई जाती है कि जैनधर्म जीवन का निषेध सिखाता है। अतः यहां इस भ्रान्ति का निराकरण कर देना अप्रासंगिक नहीं होगा कि जैनधर्म के तप त्याग का अर्थ शारीरिक एवं भौतिक जीवन को अस्वीकृति नहीं है। आध्यात्मिक मूल्यों की स्वीकृति का यह तात्पर्य नहीं है कि शरीरिक एवं भौतिक मूल्यों की पूर्णतया
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