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प्रथम अध्याय
उद्घाटन मे सतत प्रयत्नशील है। बहुत स्थलो का रहस्योद्घाटन एक सीमा तक हो भी गया है-अब भी बहुत से रहस्य शेप है । तथापि विज्ञान के आलोक मे प्रत्येक वस्तु का दिग्दर्शन कराना, अध्यात्म एव आधिदैविक तत्त्वो का आधिभौतिक रूप देना आज के युग मे अध्यापको का कर्तव्य है । जिज्ञासु छात्रो का परितोप करना भी तभी सभव हो सकता है । 'आपरितोप विदुपा न साधु मन्ये प्रयोगविज्ञानम् ।'
आज के युग मे बहुत से रहस्यो की गुत्थियो का सुलझाना, उनका आधिभोतिक रूप देना तथा उनको भौतिक विज्ञान, रसायन और गणित सिद्धान्तो में खरा उतारना हमलोगो का लक्ष्य हो गया है। यह वैद्यक सिद्धान्त के अनुकूल भी है । क्योकि चिकित्सा-विद्या की नितान्त व्यावहारिक कला है-चिकित्सा शास्त्र के सम्पूर्ण ज्ञातव्य का उपयोग एकमात्र चिकित्सा कर्म के लिये ही है-फलत आधिभौतिक तत्त्वो से आगे की चिकित्सा शास्त्र मे अपेक्षा नही है, जैसा कि सुश्रुत ने लिखा है
तस्योपयोगोऽभिहित चिकित्सा प्रति सर्वदा।
भूतेभ्यो हि पर यस्मान्नास्ति चिन्ता चिकित्सिते ॥ गीता मे लिखा है कि किसी भी विषय के सम्यक्तया ज्ञान प्राप्त करने के लिए सर्वप्रथम श्रद्धा उत्पन्न होनी चाहिये । श्रद्धा के अनन्तर दूसरी आवश्यकता इन्द्रिय-सयम की पड़ती है। इस क्रिया के द्वारा जब मनुष्य अपने सम्पूर्ण मन को अन्य विपयो से हटाकर एकाग्र चित्त होकर विशिष्ट विषय के ज्ञान सावन मे एकनिष्ठ हो जाता है, तभी वस्तुत ज्ञान की प्राप्ति सभव रहती है। इस प्राकार के ज्ञान हो जाने के अनन्तर व्यक्ति को परम शान्ति या सतोप का अनुभव होता है
श्रद्धावॉल्लभते ज्ञानं तत्पर संयतेन्द्रिय ।
ज्ञानं लब्ध्वा पर शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ।। 'निदानपचक' नामक विषय के सम्यक् ज्ञान के लिए भी उन आधारशिलाओ की अपेक्षा रहती है। इस विषय का इम अध्याय मे एक समास मे दिग्दर्शन कराने का प्रयत्न किया जा रहा है।
निदानपंचक कथन प्रयोजन-रोगो के वातादिदोप-भेद से एव साध्यासाव्य-भेद से सम्यक् रीति से रोग का विनिश्चय करने मे निदानपचक की उपयोगिता है। व्याधि का यथावत् ज्ञान करने के लिये निदान, पूर्वरूप, रूप, उपशय तथा सम्प्राप्ति इन पॉचो सावनो की सहायता अपेक्षित है। ये निदानादि पाँचो तत्त्व निदानपचक कहलाते है। इनके द्वारा पृथक पृथक् तथा