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भूमिका.
आदि का पता चलता है. ऐसे ही भारत के भिन्न भिन्न प्रदेशों में चलनेवाले भित्र भित्र संवत्रों के प्रारंभ का निश्चय होता है. इसी तरह प्राचीन काल के देशों, जिलों, नगरों, गांवों आदि भूगोल से संबंध रखनेवाले नामों तथा उनके वर्तमान स्थलों का ज्ञान हो सकता है. प्राचीन शोध के संबंध में जो कुछ कार्य श्रम तक हुआ है वह बड़े महत्व का है तो भी यह कहना अनुचित न होगा कि वह अब तक प्रारंभिक दशा में है और इस विशाल देश के किसी किसी अंश में ही हुआ है. आगे के लिये इतना विस्तीर्ष क्षेत्र बिना टटोला हुआ पड़ा है कि सैकड़ों विज्ञान बहुत वर्षों तक लगे रहें तो भी उसकी समाप्ति होना कठिन है.
हमारे यहां प्राचीन शोध का कार्य बहुत ही आवश्यक है और जितने अधिक विद्वान् उधर प्रवृत्त हो उतना ही अधिक लाभकारी होगा परंतु अभी तक उसमें बहुत ही कम विद्वानों की रुचि प्रवृत्त हुई है. इसका मुख्य कारण यही है कि तत्संबंधी साहित्य इतने भिन्न भिन्न पुस्तकों में बिखरा हुआ है कि बंबई, कलकता जैसे बड़े शहरों को, जहां पर उत्तम पुस्तकालय हैं, छोड़ कर अन्यत्र उन सव पुस्तकों का दर्शन होना भी कठिन है.
ई. स. १८६३ तक कोई ऐसा पुस्तक नहीं बना था कि केवल उस एक ही पुस्तक की सहायता से हिमालय से कन्याकुमारी तक और द्वारिका से उड़ीसे तक की समस्त प्राचीन लिपियों का पढ़ना कोई भी विद्वान् आसानी के साथ सीख सके. इस अभाव को मिटाने के लिये मैंने ई. म. १८६४ में 'प्राचीन लिपिमाला' नामक छोटासा पुस्तक प्रकट किया, जिसको यहां के और यूरोप के विद्वानों ने उपयोगी बतलाया इतना ही नहीं किंतु उसको इस विषय का प्रथम पुस्तक प्रकट कर उसका आदर किया. उस समय तक इस विषय का कोई पाठ्य पुस्तक न होने के कारण विश्वविद्यालयों की परीक्षाओं में प्राचीन लिपियों को स्थान नहीं मिला था परंतु उक्त पुस्तक के प्रसिद्ध होने के पीछे प्राचीन लिपियों का विषय विश्वविद्यालयों की एम. ए. की पढ़ाई में रक्खा गया और कलकत्ता युनिवर्सिटी ने इस पुस्तक को उक्त विषय का पाठ्य पुस्तक स्थिर किया. ऐसे ही अन्य युनिवर्सिटियों के विद्यार्थी लोग भी अपनी पढ़ाई में उक्त पुस्तक का सहारा लेने लगे. कई देशी एवं यूरोपियन विद्वानों ने उससे भारतीय प्राचीन लिपियों का पढ़ना सुगमता के साथ सीखा. थोड़े ही बरमों में उसकी सब प्रतियां उठ गई इतना ही नहीं, किंतु उसकी मांग यहां तक बड़ी कि बीस गुना मूल्य देने पर भी उसका मिलना कठिन हो गया. इसपर मेरे कई एक विद्वान् मित्रों ने उसका नवीन संस्करण छपवाने का आग्रह किया; परंतु गत २५ वर्षों में प्राचीन शोध में बहुत कुछ उन्नति हुई जिससे उसीको दुबारा छपवाना ठीक न समझ कर मैंने अब तक के शोध के साथ यह विस्तृत नवीन संस्करण तय्यार किया है जो प्रथम संस्करण से करीब तिगुने से भी अधिक बढ़ गया है. इसमें पहिले संस्करण से बहुत अधिक शिलालेखों, दानपत्रों और सिक्कों से वर्णमालाएं बनाई गई हैं और वे लिपियों के विकासक्रम के अनुसार जमाई गई हैं जिससे गुप्त, कुटिल, नागरी, शारदा ( कश्मीरी ), बंगला, पश्चिमी, मध्यप्रदेशी, तेलुगु-कनड़ी, ग्रंथ, कलिंग, तामिळ आदि लिपियों का एक ही सामान्य लिपि ब्राह्मी से क्रमशः विकास कैसे हुआ एवं भारतवर्ष की सब वर्तमान आर्यि लिपियों की उत्पत्ति कैसे हुई यह आसानी से मालूम हो सकता है.
इस बड़े ग्रंथ को देख कर कोई विज्ञान यह शंका न करें कि इतनी बहुत लिपियों का ज्ञान संपादन कर भारत के प्राचीन लेखादि का पढ़ना बहुत ही कठिन है, क्योंकि वास्तव में यह बात नहीं है केवल एक प्रारंभ की ब्राह्मी लिपि को समझते ही आगे के लिये मार्ग बहुत ही सुगम हो जाता है जिस का कारण यही है कि आगे की लिपियों में बहुत ही थोड़ा थोड़ा अंतर पड़ता जाता है जिससे उनके सीखने में अधिक श्रम नहीं पड़ता. मैं अपने अनुभव से कह सकता हूं कि संस्कृतज्ञ विद्वान् छः मास से भी कम समय में इस पुस्तक के सहारे प्राचीन लिपियों के पढ़ने का ज्ञान अच्छी तरह
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Aho! Shrutgyanam