Book Title: Aryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Author(s): Ravindra Jain
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

View full book text
Previous | Next

Page 34
________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला सामाजिक कार्य भी कर रहे हैं। सम्पूर्ण नारी समाज का उद्धार उनके द्वारा इस अपेक्षा से हुआ है कि सर्वप्रथम १७ वर्ष की अवस्था में दीक्षा धारण करने से आज जितनी भी बाल ब्रह्मचारिणी लड़कियाँ हैं, उनका सभी का मार्ग दृढ़ करने के लिए आप अग्रसर बनीं, जिससे करीब दो सौ से भी अधिक लड़कियाँ संसार के कीचड़ में न पड़ती हुई अपना आत्म-कल्याण करने में तत्पर हुई हैं। समाज के लिए भी आज सोनगढ़ साहित्य को परास्त करने वाला अपने आगमानुकूल साहित्य हिन्दी, मराठी, संस्कृत, कनड़ आदि भाषा में गद्य, पद्य रूप में बालविकास से लेकर समयसार ग्रंथ तक न्याय, छन्द, व्याकरण, अलंकार सहित सृजन किया, उसी के साथ-साथ उपन्यास टाइप छोटी-छोटी पुस्तकें तथा अनेक प्रकार के पूजा विधान व्रतादिक की पुस्तकें निकालने से समाज की बहुत भारी क्षति को पूरा किया है। यह सब देखकर मैं सोचता हूँ कि माताजी ने पूर्व भव में ऐसा कौन-सा पुण्य किया था जो कि साक्षात् सरस्वती की पुत्री बनकर अपना 'ज्ञानमती' यह नाम सार्थक किया। माताजी के द्वारा लिखित या उनके द्वारा किया हुआ अनुवाद अथवा टीकाएँ उसमें अपनी मनगढंत बातें नहीं हैं। प्रत्येक ग्रंथ में पूर्वाचार्यों के प्रमाण देकर अपनी रचनाएँ प्रमाणित की हैं। मैं कल्पना ही नहीं कर सकती कि माताजी ने इतने ग्रंथ कब पढ़े और कैसे उनको अकलंक स्वामी जैसे एक बार ही पढ़कर कण्ठस्थ हो गये, जो वह धाराप्रवाह से लिख सकती हैं, बोल सकती हैं, उनके पद्यमय अर्थ में रचना कर सकती हैं। जैन गणित का विषय भी उनका इतना पक्का है, जिसके कारण त्रिलोक को हस्त आमलकवत् जानकर उसको भी त्रिलोक भास्कर तथा जैन ज्योतिर्लोक आदि ग्रंथ रचना करके रख दिया और मेरुपर्वत तथा जम्बूद्वीप की रचना तो देखने वालों का मन मोहित करती है। पू० माताजी का दर्शन मैंने सर्वप्रथम जयपुर खानिया में स्व० प्रथम पट्टाधीश आचार्य श्री १०८ वीरसागरजी के अंतिम दर्शन के लिए मैं अपनी माँ साहब अर्हमति माताजी, जो उस समय ब्र० कुन्दनबाई के नाम से प्रसिद्ध थीं, उनके साथ चौका लकर गई थी, उस समय किये थे, उस टाइम पर माताजी, मुझे जानती भी नहीं होंगी और न कभी मैंने उनके साथ कोई बात करने का प्रयत्न ही किया, लेकिन उनके वे दर्शन मेरे हृदय में वैराग्य अंकुर पैदा करने के लिए निमित्त जरूर बनें ऐसा मैं मानती हूँ; क्योंकि उस समय वे और जिनमती, जो उस समय क्षुल्लिका थीं और भी एक-दो माताजी थीं उनको मैं नहीं पहचानती थी और मुझे न ही उस बात का स्मरण भी है, लेकिन वे सब सुबह से अपनी क्रिया करके पढ़ने लगतीं, दोपहर में पढ़ती रहतीं तथा सायंकाल में आचार्यश्री वीरसागरजी के पास सभी त्यागी एकत्रित होकर धर्मचर्चा करते, तब यह सब दूर से ही देखकर मैं अपने मन में विचार करती कि ये इतनी छोटी अवस्था में कैसे घर से निकली ? इनके परिवार ने इनको कैसे घर से निकलने दिया ? यदि इनका सहयोग मुझे भी बालपन में मिलता तो मैं भी गृहस्थ के कीचड़ में नहीं पड़ती इत्यादि । उस समय हमारी दिनचर्या सुबह उठकर देवपूजा आदि से निवृत्त होकर चौका करना, त्यागियों को आहारदान देना, वहाँ का कार्य पूर्ण होने के अनन्तर त्यागियों का उपदेश सुनना और रात्रि को क्षुल्लिका चन्द्रमतीजी के पास चौबीस ठाणा चर्चा करना और दूर से इन सभी त्यागियों के दर्शन करना, इस प्रकार करीब एक माह रहकर मैं घर पर गई। इस एक माह में मुझे एक अलौकिक आनंद आया था; क्योंकि पूरा समय धर्म-ध्यान में साधुओं के दर्शन में बीतता था। घर में बड़े पुत्र शरद कुमार के विवाह की चर्चा चल रही थी, तभी मैंने कह दिया था कि मुझे तो बहू ऐसी चाहिये जो कि आते ही अपना संसार सँभाले। बहू आने पर मैं घर पर रहने वाली नहीं। बस, जहाँ इच्छा होती है वह मार्ग अपने आप मिलता है। आखिर हुआ भी वैसा । शरद का विवाह होने के अनंतर मुझे घर में रहने का विशेष मौका ही नहीं मिला और दो-चार वर्ष में ही घर से निकल गई, यानि हमारी दीक्षा हो गई। यही एक अपूर्व योग मिला, लेकिन हमारी दीक्षा के समय परमपूज्य माताजी संघ में नहीं थीं, वे उसके पूर्व से ही संघ में से यात्रा के निमित्त से अपनी शिष्याओं को लेकर अलग विहार करने चली गई थीं। पू० माताजी ने उस यात्रा के समय में कितने परिश्रम सहन किये, उनको घर से निकलने में तथा अलग विहार में भी बहुत कष्ट उठाने पड़े, यह सब मैंने उनकी 'मेरी स्मृतियाँ' में पढ़ा है। पू० माताजी सम्मेदशिखरजी से यात्रा करते-करते दक्षिण की तरफ श्रवणबेलगोला में आ गईं। शायद हमारी दीक्षा के समय उनका वास्तव्य वहीं पर था, तदनंतर दो-तीन वर्ष में वे अपनी यात्रा पूर्ण करके, प० पूज्य आचार्य शिवसागरजी का संघ उदयपुर का चातुर्मास पूर्ण करके प्रतापगढ़ की तरफ जा रहा था, तब रास्ते में किरावली' करके एक गाँव पड़ता है, वहाँ पर माताजी अपने संघ सहित आकर संघ में शामिल हुईं, तब मैंने उनके दर्शन किये। परिचय से स्नेह बढ़ गया और उनके सानिध्य में कुछ ग्रंथों का अभ्यास अध्ययन करने का मौका मिला; क्योंकि संघ में आने से दो-चार दिन के बाद ही खुद आर्यिका श्रीज्ञानमती माताजी ने कहा कि तुमको हम कुछ अध्ययन कराना चाहते हैं। तुम्हारी क्या इच्छा है ? मैंने कहा यह तो मेरा अहोभाग्य है; क्योंकि मैं विशेष पढ़ी-लिखी नहीं थी, धर्मभावना जाग्रत होकर भी धर्मग्रंथों का ज्ञान नहीं था। मैंने कहा-आप पढ़ाओगी तो मुझे अत्यंत हर्ष होगा; क्योंकि मैं भी कोई पढ़ाने वाला मिले, यह इच्छा कर रही हूँ, यदि आप अपना समय दे रही हो तो जो भी समय आपको अनुकूल हो मुझे कहो, मैं उसी समय आपके पास हाजिर होकर विद्याध्ययन करूँगी। उसी समय से मेरा अध्ययन माताज़ी के पास शुरू हुआ और क्रम से उनके पास न्याय ग्रंथ, परीक्षामुख, न्यायदीपिका, व्याकरण, जैनेन्द्र प्रक्रिया, छन्दमंजरी, वाग्भट्टालंकार, जीवंधर चम्पू महाकाव्य, महाप्रबन्ध प्रथम भाग आदि ग्रंथों का अध्ययन किया, उसके साथ उस समय उनके मन में जम्बूद्वीप की रचना का प्रयत्न चल रहा था। प्रतापगढ़ में उन्होंने ६ x ६ के कागज पर एक बड़ा नक्शा जम्बूद्वीप का निकलवाकर उसमें कुलाचल पर्वतादि के कलर, भरकर Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 ... 822