________________
परिग्रह की सीमाए
जीवन और आवश्यकता का चोली-दामन-सा सम्बन्ध है । जब तक जीवन है, तब तक मनुष्य आवश्यकताओं से मुक्त हो नहीं सकता । परन्तु आवश्यकताओं को घटाना-बढ़ाना यह मनुष्य के हाथ में है । यदि मनुष्य के मन में इच्छा, आकांक्षा एवं तृष्णा का प्रवाह बह रहा है, तो उसकी आवश्यकताएँ भूत की चोटी की तरह बढ़ती ही जाएँगी । उसके जीवन का अन्त आ सकता है, परन्तु तृष्णा के रूप में अवतरित आवश्यकताओं एवं कामनाओं का अन्त नहीं आ सकता । वह मनुष्य के जीवन को बर्बाद कर देती है, उसे पतन के महागर्त में गिरा देती है ।
परन्तु जब मनुष्य अपनी इच्छाओं पर कन्ट्रोल कर लेता है, तब वह अपने जीवन को समेटने लगता है । इच्छा का प्रवाह रुकते ही उसका जीवन सीमित परिमित बन जाता है। फिर वह उन्हीं पदार्थों को अपने भोगोपभोग में लेता है, जिनके बिना उसका काम नहीं चलता । यदि दो जोड़ी वस्त्र से उसका काम चल सकता है, तो वह उससे अधिक वस्त्र का संग्रह करके नहीं रखेगा । भले ही, कितने ही सुन्दर डिजाइन एवं नयी फैशन का वस्त्र भी क्यों न हो, वह बिना आवश्यकता के उसका संग्रह नहीं करेगा । वह वस्त्र या अन्य किसी भी पदार्थ को उसके डिजाइन, फैशन एवं सौन्दर्य को देखकर ही नहीं खरीदता है । वह उसे आवश्यकता की पूर्ति के लिए खरीदता है | अतः वह अनावश्यक वस्तु का संग्रह नहीं करता और ऐसा करना पाप समझता है ।
अनावश्यक संग्रह धार्मिक दृष्टि से ही नहीं, सामाजिक एवं राष्ट्रीय दृष्टि से भी पाप है, अपराध है । आज समाज एवं देश में जो विषमता परिलक्षित होती है, उसमें संग्रह-वृत्ति भी उसका एक कारण है । पूँजीपतियों द्वारा अनाप-शनाप संग्रह करने के कारण बाजार में वस्तुओं की कमी हो जाती है । पदार्थों का आशा से भी अधिक मूल्य बढ़ जाता है ।
( १४ )
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org