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तृष्णा की आग | ४५ पनपाता है, तो, इसका अर्थ है, कि वह अपरिग्रह के व्रत को भली प्रकार से समझता है । जो गरीबी स्वेच्छा से स्वीकार नहीं की गई है, और कुदरत की तरफ से लादी गई है, वह शान्ति नहीं दे सकती। वही गरीबी, जो अपनी इच्छा से-- अपने आप से धारण की गई है, अपरिग्रह को जन्म देती है। यही है, अपरिग्रह ।
स्वयं भगवान महावीर की और देखिए। वे राजकुमार अवस्था में हैं, और संसार के श्रेष्ठ से श्रेष्ठ सभी वैभव उनको प्राप्त हैं। उन्होंने प्रतिष्ठित राजकुल में जन्म लिया है, और अपनी आय के तीस वर्ष उसी में गुजारे हैं। फिर भी उन्हें शान्ति नहीं मिली। शान्ति मिल जाती तो वे घर क्यों छोडते ? यह प्रश्न हमारे सामने है। हमने इस प्रश्न को नहीं समझा, तो भगवान महावीर के घर छोड़ने के उद्देश्य को नहीं समझा। और इसके विपरीत जिन्होंने यह समझा है, कि शून्य-भाव से भगवान् ने छोड़ दिया, उन्होंने भगवान महावीर को नहीं पहचाना।
तो, इस संसार में एक तरफ धन-वैभव की आग इकट्ठी हो रही है, और दूसरी तरफ गहरे गडढे पड़े हुए हैं। एक तरफ लोग खा-खा कर मर रहे हैं, और दूसरी तरफ खाने के अभाव में मर रहे हैं। एक तरफ इतने कपड़े शरीर पर लदे हुए हैं, कि उनके बोझ से दबे जा रहे हैं, और दूसरी तरफ पहनने को धागा भी नहीं है। एक तरफ रहने के लिए सोने के महल बने हैं, और दूसरी तरफ झोंपड़ी भी नहीं है। इस प्रकार जो धनी हैं, वे भी मर रहे हैं और जो गरीब हैं, वे भी मर रहे हैं।
तुम्हारे पास आवश्यकता से अधिक धन है, वैभव है, और तुम चोरी नहीं करते हो, तो इतने मात्र से समस्या हल होने वाली नहीं है। तुम सोने के महलों में बैठकर अगर संसार को त्याग और वैराग्य का उपदेश देते हो, तो यह तो एक प्रकार का खिलवाड़ है। जिसके सामने छप्पन प्रकार के भोजन खाने को रखे हैं, और मनुहार हो रही हैं, वह दुसरों को उपवास करने का उपदेश दे जिन्हें तीन दिन से अन्न का दाना नहीं मिला है, उन्हें वह उपवास का महत्व बतलाए, तो वह उपदेश नहीं है, मजाक है। इस प्रकार जनता के मन में शान्ति स्थापित नहीं हो सकती। जनता के मन में शान्ति तभी आएगी, जब उपदेश देने वाला जनता के उस रूप को स्वीकार कर लेगा, और जनता की भूमिका में आकर सामने मैदान में खड़ा हो जाएगा। तभी जनता की भावना जागेगी, और संसार उसके पद-चिन्हों पर चलेगा।
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