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तृष्णा की आग | ४७ पर और कभी गधे पर सवार होते हैं। फाग खेलने वालों के वेष भी चित्रविचित्र हो जाते हैं।
उनके इस कथन का अभिप्राय यह है, कि जो उपदेशक जनता से त्याग कराना चाहता है; किन्तु स्वयं त्याग नहीं करता, उसका उपदेश जनता के हृदय पर असर नहीं डाल सकता। उनके उपदेश को सुनकर जनता उस समय उनकी विद्वत्ता की तो कायल हो जाती है, मगर स्थायी रूप के उसके मन पर उसका प्रभाव नहीं पड पाता-तो विद्वत्ता और चीज है, और ज्ञान और चीज है। कोई विद्वान है, बाल की खाल निकाल रहा है, तो वह अपने प्रबल तर्कों से दुनिया का मुंह बन्द कर सकता है, परन्तु जनता के हृदय को नहीं बदल सकता। जनता के हृदय को बदलने की कला तो ज्ञानी में ही होती है।
जो जिस चीज को स्वयं नहीं छोड़ सकता, वह दूसरों से उसे कैसे छुडा सकता है ?
भगवान महावीर ने पहले स्वयं जनता के सामने अपना उदाहरण रखा । जो एक दिन महलों में रहते थे, और प्रातःकाल होते ही जिनसे हजारों आदमी दान पाकर मुक्त कंठ से जिनकी प्रशंसा करते थे, उन्होंने दीक्षा लेने का विचार किया। जब विचार किया, तो दीक्षा लेने से पहले अपना सारा वैभव भी लुटा दिया, और इस प्रकार हल्के होकर जनता के सामने मैदान में आए। राजकुमार से भिक्षक बनकर जनता के बीच में आए तो एक ही आवाज में हजारों आदमी उनके पीछे चल पड़े।
मतलब यह है, कि परिग्रह वृत्ति का त्याग करके ऐच्छिक गरीबी को धारण किए बिना ही यदि कोई संसार की समस्याओं को हल करना चाहता है, तो केवल निराशा ही उसके पल्ले पड़ सकती है। बिना त्याग के जीवन शून्यवत है।
मैं साधु और गृहस्थ दोनों के विषय में कह रहा हूँ। साधु यदि अपनी भूमिका में रहना चाहते हैं, तो उन्हें पूर्ण रूप से अपरिग्रह का व्रत धारण करना ही होगा। फिर बाहर से ही अपरिग्रही होने से काम नहीं चलेगा, अन्तरतर में भी उसे अपरिग्रही बनना पड़ेगा। परिग्रह की वासना न रहने का लक्षण यह है, कि उसकी निगाह में राजा और रक तथा धनवान् और निर्धन, एक रूप में दिखाई देने चाहिए। जो किसी भी सन्त के सामने नतमस्तक हो जाता है, धनवान् की खुशामद करता है, और हृदय
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