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तीर्थकर महावीर का अपरिग्रह दर्शन | १७३
इच्छाओं को नियन्त्रित करने के लिए महाबीर ने 'इच्छापरिमाणवत' का उपदेश किया। यह अपरिग्रह का सामाजिक रूप भी था । बड़े-बड़े धनकुबेर श्रीमंत एवं सम्राट भी अपनी इच्छाओं को सीमित, नियन्त्रितकर मन को शान्त एवं प्रसन्न रख सकते हैं, और साधन-हीन साधारण लोग, जिनके पास सर्वग्राही लम्बे-चौड़े साधन तो नहीं होते, पर इच्छाएं असीम दौड़ लगाती रहती हैं, वे भी इच्छापरिमाण के द्वारा समाजोपयोगी उचित आवश्यकताओं की पूर्ति करते हए भी अपने अनियन्त्रित इच्छा-प्रवाह के सामने अपरिग्रह का एक आन्तरिक अवरोध खड़ा कर उसे रोक सकते हैं।
इच्छापरिमाण-एक प्रकार के स्वामित्व-विसर्जन की प्रक्रिया थी। महावीर के समक्ष जब वैशाली का आनन्द श्रेष्ठी इच्छापरिमाण व्रत का संकल्प लेने उपस्थित हुआ. तो महावीर ने बताया- "तुम अपनी आवश्यताओं को सीमित करो। जो अपार-साधन सामग्री तुम्हारे पास है, उसका पूर्ण रूप में नहीं तो, उचित सीमा में विसर्जन करो। एक सीमा से अधिक अर्थ-धन पर अपना अधिकार मत रखो, आवश्यक क्षेत्र, वास्तु रूप भूमि से अधिक भूमि पर अपना स्वामित्व मत रखो। इसी प्रकार पशु, दासदासी, आदि को भी अपने सीमा-हीन अधिकार से मुक्त करो।"
स्वामित्व विसर्जन को यह सात्विक प्रेरणा थी, जो समाज में सम्पत्ति के आधार पर फैली अनर्गल विषमताओं का प्रतिकार करने में सफल सिद्ध हुई । मनुष्य जब आवश्यकता से अधिक सम्पत्ति व वस्तु के संग्रह पर से अपना अधिकार हटा लेता है, तब वह समाज और राष्ट्र के लिए उन्मुक्त हो जाती है। इस प्रकार अपने आप ही एक सहज समाजवादी अन्तर प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है। भोगोपभोग एवं दिशा-परिमाण :
मानव सुखाभिलाषी प्राणी है। वह अपने सूख के लिए नाना प्रकार के भोगोपभोगों की परिकल्पना के माया-जाल में उलझा रहता है। यह भोग-बुद्धि ही अनर्थ की जड़ है । इसके लिए ही मानव अर्थ-संग्रह एवं परिग्रह के पीछे पागल की तरह दौड़ रहा है। जब तक भोग-बुद्धि पर अंकुश नहीं लगेगा, तब तक परिग्रह-बुद्धि से मुक्ति नहीं मिलेगी। उसका उपचार लाभ-बुद्धि ही है।
__यह ठीक है, कि मानव-जीवन भोगोपभोग से सर्वथा मुक्त नहीं हो सकता । शरीर है, उसकी कुछ अपेक्षाएं । उन्हें सर्वथा कैसे ठुकराया जा
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