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१५० | अपरिग्रह-दर्शन
जैसा कुछ नहीं था, तो नमस्कार पाने की तो कल्पना ही क्या की जा सकती है, मेरे नमस्कार का उत्तर भी मुझें नहीं मिलता था। अब जबकि मेरे पास धन है, ऐश्वर्य है, तो जो भी मिलता है, बही नमस्कार करता है, मैं उसके उत्तर में कभी-कभी कह देता है कि "ही, भाई कह दूँगा ।" एक दिन किसी ने मुझसे पूछा कि “किससे कह दोगे ?” मैंने उत्तर दिया कि "यह नमस्कार मुझे नहीं किया जाता है। मेरे धन को किया जाता है । यदि मुझे किया जाता, तो उस समय भी किया जाता, जब मेरे पास धन नहीं था । तब तो मेरे नमस्कार का प्रत्युत्तर भी नहीं मिलता था । अतः मैं यह नमस्कार नोटों के रूप में तिजोरी में विराजमान लक्ष्मी को कह 'देने की बात करता है ।" इस प्रकार समाज ने व्यक्ति को कोई भी महत्व न देकर धन और ऐश्वयं को ही महत्व दे रखा है।
जो व्यक्ति समाज के इस धरातल से ऊपर उठकर व्यक्ति के गुणों का वास्तविक मूल्यांकन करने की योग्यता रखता है, वह धन और ऐश्वयं के बढ़ने पर भी विनम्र रहता है । च कि वह स्वयं भी जीवन की इसी राह पर ठोकर खा चुका है, वह जीवन के स्वरूप और आयाम के बारे में जान चुका है, इसलिए धन, ऐश्वर्य और पद के साधन पाकर भी वह उनका गुलाम नहीं होता, बल्कि वह उन्हीं को अपना दास बनाए रखता है ।
एक और सेठ की बात है । एक दिन वह किसी गरीब भाई का निमन्त्रण स्वीकार कर उसके घर पर गया । साथ में उसका एक छोटा चचेरा भाई भी था । निमन्त्रण देने वाले गरीब के टूटे-फूटे घर को देखकर सेठ के भाई ने कहा " कहीं नरक में आ गिरे ?" इस पर सेठ ने कहा"व्यक्ति को सूरत और मकान को देखने के बदले उसके मधुर भाव और मन को देखना चाहिए। निमन्त्रण देने वाला टूटा-फूटा मकान नहीं है, afer वह व्यक्ति है, जिसने शुद्ध प्रेम के भाव से निमन्त्रण दिया है ।"
सेठ का विचार कितना सुलझा हुआ है। आज लोग जीवन-पथ पर चलते हैं, जीवन के दिन गुजारते हैं, किन्तु वास्तव में जीवन के आदर्श पूर्ण व्यवहारों की धरती पर न उन्हें ठीक तरह चलना आता है, न जीवनयापन करना । वे जिन्दगी को ठीक ढंग से समझ ही नहीं पाते । उसका विश्लेषण और विवेचन इनके पास नहीं होता । बड़ी अजीब बात तो यह लगती है, कि लोग परलोक में स्वर्ग की सँकरी गली में चलने की लम्बीचौड़ी बातें करते हैं, पर अभी तक वर्तमान जिन्दगी के महापथ पर लड़खड़ाते कदमों से चल रहे हैं ।
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