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१७८ | अपरिग्रह-दर्शन
"जितं जगत् केन ? मनो हि येन।" और जो मन से पराजित हो गया, वह संसार से पराजित हो गया। संकल्पों का केन्द्र मन को माना गया है, शरीर और इन्द्रियाँ मन के प्रभाव में चलते हैं। यदि मन में किसी प्रकार की उदासी या बेचैनी होती है, तो शरीर भले कितना ही लम्बा-तगड़ा हो, वह अपनी शक्ति खो बैठता है। यदि मन में स्फति तथा उत्साह होता है, तो दुबला-पतला शरीर भी जीवन को दुर्गम घाटियों को पार कर जाता है। तभी तो कहा जाता है----
"मन के हारे, हार है, मन के जोते, जीत ।" इच्छाओं का वर्गीकरण :
जब इच्छाएं सजग मन की दासी बनकर चलती हैं, तो यह भी देखना चाहिए कि उनसे क्या सेवाएँ लेनी चाहिए। कौन-सी इच्छाएं उपयोगी होती हैं और कौन-सी निरर्थक । इच्छाओं का यह वर्गीकरण करने से जीवन में सुख की व्यवस्था ठीक होती है, फिर इच्छाएँ भार बनकर मनुष्य को दबोच नहीं सकतीं । जो इच्छाएं निरर्थक और अनुपयोगी होती हैं, उन्हें मन से अलग करना होगा और फिर यह छाँटना होगा, कि उपयोगी इच्छाओं में भी कोन प्रथम पूर्ति किए जाने योग्य है और किसको कुछ समय के लिए टाला भी जा सकता है। यदि भोजन करने की तत्काल आवश्यकता हुई, तो उसे प्राथमिकता देनी होगी, क्योंकि वह जीवन की अनिवार्य आवश्यकता है; किन्तु उसके साथ-साथ अन्य इच्छाएं, जिनकी तत्काल पूर्ति हुए बिना भी काम चल सकता है, उन्हें कुछ समय के लिए टालना ही होगा। जैसे भूख लगने पर भोजन करना है, यह आवश्यक है। किन्तु भोजन में मिष्टान्न खाना है, यह कोई आवश्यक नहीं है। यह केवल इच्छा है । इस प्रकार की इच्छा पूर्ण न भी हो, तो भी साधारण भोजन से काम चल जाना चाहिए और उसमें आनन्द का अनुभव होना चाहिए।
इच्छाओं को ठकराने की इस प्रक्रिया का आरम्भ कहां से हो, इसके लिए इच्छाओं के विश्लेषण की आवश्यकता है। इच्छाओं की तह में जाने से यह पता लगता है,कि वे इच्छाएँ कहां तक उपयोगी और आवश्यक हैं । सम्भव है, कि भोजन की आवश्यकता होने पर साधारण पात्र में और
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