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इच्छाओं का वर्गीकरण
संस्कृत साहित्य के एक प्राचीन आचार्य ने एक श्लोक में बहुत सुन्दर बात कही है
"आशाया ये दासाः ते दासाः सर्व-लोकस्य,
आशा वासो येषां, तेषां दासायते लोकः ।" जो लोग अपनी इच्छाओं के गुलाम हैं, वे समूचे संसार के गुलाम हैं । मन में तरंग उठी, विकल्प आया और बस उसी के प्रवाह में बह गए। जो लोग विकल्प के प्रवाह को रोकने के लिए कुछ भी संकल्प-शक्ति (विलपावर) नहीं रखते, वे संसार के नेता एवं स्वामी नहीं बन सकते । शरीर
और इन्द्रियाँ तो मन के इशारे पर चलती हैं, ये सब मन के गुलाम हैं। किन्तु जब मन इनका गुलाम हो जाता है, तो फिर प्रवाह उलटा ही बहने लग जाता है । मन की गुलामी वर्तमान जीवन तक ही सीमित नहीं रहती, वह अनेक जन्म-जन्मान्तरों तक चलती है, और हर क्षण परेशान करती रहती है।
बहत बार ऐसा लगता है, कि साधक इच्छाओं की गुलामी को तिलांजलि दे रहा है, धन-परिवार और कुटुम्ब से मोह का नाता तोड़ रहा है। किन्तु स्थिति यह हो जाती है, कि जो इच्छाएँ, बाहर में व्यक्त थीं, वे बाहर में तो दिखाई नहीं देतीं, उनसे संघर्ष करने का कोई रूप दिखाई नहीं देता, किन्तु वे अपने पूरे दल-बल के साथ भीतर में बैठ जाती हैं। और व्यक्ति बाह्य इच्छाओं की जगह अन्दर की इच्छाओं का दास बन जाता है। जो व्यक्ति यहाँ पर हजारों लाखों का दान दे देते हैं, धन की इच्छा से अपना सम्बन्ध समाप्त कर लेते हैं, परन्तु वे पर-लोक में उससे अनेक गुणा अधिक प्राप्त करने के सपने देखते हैं। वे यहाँ जो कुछ भी
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