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तीर्थकर महावीर का अपरिग्रह दर्शन | १७५ अपितु निष्कामबुद्धि से, जनहित में संविभाग करना, सहोदर बन्धु के भाव से उचित हिस्सा देना, दान-धर्म है । दाता बिना किसी प्रकार के अहंकार व भौतिक प्रलोभन से ग्रस्त हुए, सहज सहयोग की पवित्र बुद्धि से दान करे-वही दान वास्तव में दान है। दान का अर्थ है- संविभाग।। - इसीलिए भगवान महावीर दान को संविभाग कहते थे । संविभाग -अर्थात् सम्यक ~उचित विभाजन-बंटवारा और इसके लिए भगवान का गुरु-गम्भीर घोष था, कि -संविभागी को ही मोक्ष है, असंविभागी को नहीं- 'असंविभागी न हु तस्स मोक्खो।' वैचारिक अपरिग्रह :
भगवान महावीर ने परिग्रह के मूल तत्व मानव मन की बहत गहराई में देखे । उनकी दृष्टि में मानव-मन की वैचारिक अहंता एवं आसक्ति को हर प्रतिबद्धता परिग्रह है । जातीय श्रेष्ठता, भाषागत पवित्रता, स्त्रीपुरुषों का शरीराश्रित अच्छा-बुरापन, परम्पराओं का दुराग्रह आदि समग्र वैचारिक आग्रहों, मान्यताओं एवं प्रतिबद्धताओं को महावीर ने आन्तरिक परिग्रह बताया और उससे मुक्त होने की प्रेरणा दी। महावीर ने स्पष्ट कहा, कि विश्व की मानव जाति एक है। उसमें राष्ट्र, समाज एवं जातिगत उच्चता-नीचता जैसी कोई चीज नहीं। कोई भी भाषा शाश्वत एवं पवित्र नहीं है । स्त्री और पुरुष आत्मदृष्टि से एक हैं, कोई ऊँचा या नीचा नहीं है। इसी तरह के अन्य सब सामाजिक तथा साम्प्रदायिक आदि भेद विकल्पों को महावीर ने औपाधिक बताया, स्वाभाविक नहीं।
इस प्रकार भगवान महावीर ने मानव-चेतना को वैचारिक परिग्रह से भी मुक्त कर उसे विशुद्ध अपरिग्रह भाव पर प्रतिष्ठित किया । अपरि की व्यापक परिभाषा की।
भगवान् महावीर के अपरिग्रहवादी चिन्तन की पांच फलश्र तियां आज हमारे समक्ष हैं, जो इस प्रकार हैं
१. इच्छाओं का नियम। २. समाजोपयोगी साधनों के स्वामित्व का विसर्जन । ३. शोषण-मुक्त समाज की स्थापना। ४. निष्कामबुद्धि से अपने साधनों का जनहित में संविभाग-दान।
५. आध्यात्मिक-शुद्धि । १. मुहादाई मुहाजोवी, दो वि गच्छंति सुग्गई।
--- दशवकालिक सूत्र
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