Book Title: Aparigraha Darshan
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 200
________________ अपरिग्रह : शोषण मुक्ति दुःखों का मूल : भगवान् महावीर ने परिग्रह, संग्रह-वृत्ति एवं तृष्णा को संसार के समग्र दुख-क्लेशों का मूल कहा है । संसार के समस्त जीव तृष्णावश होकर अशान्त और दुखी हो रहे हैं। तृष्णा, जिसका कहीं अन्त नहीं, कहीं विराम नहीं जो अनन्त आकाश के समान अनन्त है । संसारी आत्मा धन, जन एवं भौतिक पदार्थों में सुख की, शान्ति की गवेषणा करते हैं, परन्तु उनका यह प्रयत्न व्यर्थ है । क्योंकि तृष्णा का अन्त किए बिना कभी सुख और शान्ति मिलेगी ही नहीं, लाभ से लोभ की अभिवृद्धि होती है, तृष्णा से व्याकुलता की बेल फैलती है, इच्छा करने से इच्छा बढ़ती है । परिग्रह, संग्रह, तृष्णा से व्याकुलता की बेल फैलती है, इच्छा करने से इच्छा बढ़ती है । परिग्रह, संग्रह, संचय, तृष्णा, इच्छा तथा लालसा एवं आसक्ति - भाब और मुर्च्छा भाव ये सभी शब्द एकार्थक हैं। अग्नि में घृत डालने से जैसे वह कम न होकर अधिकाधिक बढ़ती है, वैसे ही संग्रह एवं परिग्रह से तृष्णा की आग शान्त न होकर और अधिक विशाल होती है । परिग्रह के मूल केन्द्र : 'कनक और कान्ता' परिग्रह के मूल केन्द्र बिन्दु हैं । मेरा धन, मेरा परिवार, मेरी सत्ता, मेरी शक्ति, यह भाषा, यह वाणी परिग्रह-वृत्ति में से जन्म पाती है । बन्धन क्या है ? इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने कहा" परिग्रह और आरम्भ" । आरम्भ का, हिंसा का जन्म भी परिग्रह में से ही होता है । बन्धनका मुख्य कारण परिग्रह ही माना गया है | मनुष्य ( १८६ ) Jain Education International For Private & Personal Use Only ---- www.jainelibrary.org

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