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अपरिग्रह : शोषण-मुक्ति | १६१ "धर्म के मर्म को समझने वाले ज्ञानी जन अन्य भौतिक साधनों में तो क्या; अपने तन पर भी मूर्छा भाव नहीं रखते।"
"धन-संग्रह से दुःख की वृद्धि होती है, धन ममता का पाश है, और वह भय को उत्पन्न करता है।"
"इच्छा आकाश के समान अनन्त है, उसका कभी अन्त नहीं आता।" . संसार का कारण :
परिग्रह क्लेश का मूल है, और अपरिग्रह सुखों का मूल। तृष्णा संसार का कारण है, सन्तोष मोक्ष का। इच्छा से व्याकुलता उत्पन्न होती है, और इच्छा-निरोध से अध्यात्म सूख। परिग्रह पाप है, और अपरिग्रह धर्म है।
भगवान महावीर ने वहा-सूख वस्तु-निष्ठ नहीं, विचार-निष्ठ है। सुख बाह्य वस्तु में नहीं, मनष्य को भावना में है । तन आत्मा के अधीन है, या आत्मा तन के ? भौतिकवादी कहता है-शरीर हो सब कुछ है। अध्यात्मवादी कहेगा-यह ठीक नहीं है। यह शरीर ही आत्मा के अधीन है। जब तक शरीर है, तब तक बाह्य वस्तुओं का सर्वथा त्याग शक्य नहीं, परन्तु अपनी तष्णा पर परा नियन्त्रण होना चाहिए। बिना इसके अपरिग्रह का पालन नहीं हो सकेगा। अपरिग्रहवाद की सबसे पहली मांग है - इच्छा निरोध की । इच्छा निरोध यदि नहीं हुआ, तो तृष्णा का अन्त न होगा। इसका अर्थ यह नहीं कि सुखकर वस्तुओं का. खाने-पीने की वस्तुओं का सेवन ही न करें ! करें, किन्तु शरीर-रक्षा के लिए, सुख-भोग की भावना से नहीं; और वह भी निलिप्त होकर । अपरिग्रह और संस्कृति :
अपरिग्रह का सिद्धान्त समाज में शान्ति उत्पन्न करता है, राष्ट्र में समताभाव का प्रसार करता है, व्यक्ति में एवं परिवार में आत्मीयता का आरोपण करता है। परिग्रह से अपरिग्रह की ओर बढ़ना- यह धर्म है, संस्कृति है । अपरिग्रहवाद में सुख है, मंगल है, शान्ति है । अपरिग्रहवाद में स्वहित भी है, परहित भी है । अपरिग्रहवाद अधिकार पर नहीं, कर्तव्य पर बल देता है। शान्ति एवं सुख के साधनों में अपरिग्रहवाद एक मुख्यतम साधन है। क्योंकि यह मूलतः अध्यात्मक वाद-मूलक होकर भी समाजमूलक है।
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