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१६० | अपरिग्रह-दर्शन
धन का उपार्जन एवं संरक्षण इसलिए करता है कि इससे उसकी रक्षा हो सकेगी। परन्तु यह विचार ही मिथ्या है, भ्रान्त है। भगवान् ने तो स्पष्ट कहा है : “वित्तण ताणं न लभे।" धन कभी किसी की रक्षा नहीं कर सका है । सम्पत्ति और सत्ता का व्यामोह मनुष्य को भ्रान्त कर देता है । सम्पत्ति इच्छा को और सत्ता अहंकार को जन्म देकर, सुख की अपेक्षा दुःख की ही सष्टि करती है।
सुख का राज-मार्ग :
इच्छा और तृष्णा पर विजय पाने के लिए भगवान् ने कहा"इच्छाओं का परित्याग कर दो। सुख का यही राज-मार्ग है। यदि इच्छाओं का सम्पूर्ण त्याग करने की क्षमता तुम अपने अन्दर नहीं पाते, तो इच्छाओं का परिमाण कर लो। यह भो सुख का एक अर्ध-विकसित मार्ग है।" संसार में भोग्य पदार्थ अनन्त हैं। किस-किस की इच्छा करोगे, किसकिस को भोगोगे । पुद्गलों का भोग अनन्त काल से हो रहा है, क्या शान्ति एवं सुख मिला ? सुख तुष्णा के क्षय में है, सुख इच्छा के निरोध में है। सुखी होने के उक्त मार्ग को भगवान ने अपनी वाणो में अपरिग्रह एवं इच्छा परिमाण-व्रत कहा है। यह साधक की शक्ति पर निर्भर है, कि वह कौन
सा मार्ग ग्रहण करता है। आखिरी सिद्धान्त तो यह है कि परिग्रह का परित्याग करो । धीरे-धीरे करो या एक साथ करो, पर करो अवश्य ।
परिग्रह : मूर्छाभाव :
. परिग्रह क्या है ? इसके विषय में भगवान् ने अपने प्रवचनों में इस प्रकार कहा है -
"वस्तु अपने आप में परिग्रह नहीं है । यदि उसके प्रति मूर्छा-भाव आ गया है, तो वह परिग्रह हो गया ।"
"जो व्यक्ति स्वयं संग्रह करता है, दूसरों से संग्रह कराता है, संग्रह करने वालों का अनुमोदन करता है-वह भव-बन्धनों से कभी मुक्त नहीं हो सकेगा।"
"संसार के जीवों के लिए परिग्रह से बढ़कर अन्य कोई पाश (बन्धन) नहीं है।"
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