Book Title: Aparigraha Darshan
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 185
________________ १७४ | अपरिग्रह- दर्शन सकता है । अतः महावीर आवश्यक भोगोपभोग से नहीं, अपितु अमर्यादित - भोगोपभोग से मानव की मुक्ति चाहते थे । उन्होंने इसके लिए भोग के सर्वथा त्याग का व्रत न बताकर 'भोगोभोग परिमाण' का व्रत बताया है । भोगपरिग्रह का मूल है । ज्यों ही भोग यथोचित आवश्यकता की सीमा में आबद्ध होता है, परिग्रह भी अपने आप सीमित हो जाता है । इस प्रकार महवीर द्वारा उपदिष्ट 'भोगोपभोगपरिमाण' व्रत में से अपरिग्रह स्वतः फलित हो जाता है । महाबीर ने अपरिग्रह के लिए दिशा-परिमाण और देशावकासिक व्रत भी निश्चित किए थे । इन व्रतों का उद्देश्य भी आसपास के देशों एवं प्रदेशों पर होने वाले अनुचित व्यापारिक, राजकीय एवं अन्य शोषण प्रधान आक्रमणों से मानव समाज को मुक्त करना था । दूसरे देशों की सीमाओं, अपेक्षाओं एवं स्थितियों का योग्य विवेक रखे बिना भोगवासना पूर्ति के चक्र में इधर-उधर अनियन्त्रित भाग-दौड़ करना महावीर के साधना क्षेत्र में निषिद्ध था । आज के शोषण मुक्त समाज की स्थापना के विश्व मंगल उद्घोष में, इस प्रकार महावीर का चिन्तन-स्वर पहले से ही मुखरित होता आ रहा है। यही शोषण रहित समाज का आधार है । परिग्रह का परिष्कार : पहले के संचित परिग्रह की चिकित्सा उसका उचित वितरण है । प्राप्त साधनों का जनहित में विनियोग दान है, जो भारत की विश्व-मानव समाज को एक बहुत बड़ी देन है, किन्तु स्वामित्व विसर्जन की उक्त दानप्रक्रिया में कुछ विकृतियां आ गयीं थीं । अतः महावीर ने 'चालू दान प्रणाली में भी संशोधन प्रस्तुत किया। महावीर ने देखा, लोग दान तो करते हैं, किन्तु दान के साथ उनके मन में आसक्ति एवं अहंकार की भावनाएं भी पनपती हैं । वे दान का प्रतिफल चाहते हैं, यश, कीर्ति, बड़प्पन, स्वर्ग और देवताओं की प्रसन्नता । दान में प्रतिफल की भावना नहीं चाहिए । आदमी दान तो देता था, पर वह याचक की दिवशता या गरीबी के साथ प्रतिष्ठा और स्वर्ग का सौदा भी कर लेना चाहता था । इस प्रकार का दान समाज में गरीबी को बढ़ावा देता था, दाताओं के अहंकार को प्रोत्साहित करता था । महावीर ने इस गलत दान-भावना का परिष्कार किया। उन्होंने कहा किसी को कुछ देना मात्र ही दान-धर्म नहीं है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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