Book Title: Aparigraha Darshan
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 197
________________ १८६ / अपरिग्रह-दर्शन निवृत्त होने का उपदेश देता है। संसार से मुक्त होने की साधना करने वाला साधु भी आवश्यकताओं का पूर्णतः त्याग नहीं कर सकता। इसलिए आगम में, दशवकालिकसूत्र में, वस्तु एवं आवश्यक पदार्थों को परिग्रह नहीं कहा है। मूर्छा और आसक्ति को परिग्रह कहा है- 'मुच्छा परिग्गहो वुत्तो ।' तत्वार्थ-सूत्र में भी मूर्छा को ही परिग्रह कहा है-'मूळ परिग्रहः ।' जब साधु भी आवश्यकताओं से पूर्णतः मुक्त नहीं हो सकता, तब गृहस्थ उससे कैसे निवृत्त हो सकता है। वह अपने परिवार, समाज एवं राष्ट्र से सम्बद्ध है। गृहस्थ अवस्था में रहते हुए वह इनसे अलग नहीं रह सकता। इसलिए वह अपने दायित्व एवं उसके लिए आवश्यक आवश्यकताओं को कैसे भूल सकता है। अतः वह आवश्यकताओं की पूर्ति करता है, परन्तु इच्छाओं को रोकने का प्रयत्न करता है । अतः श्रावक के व्रत को 'इच्छा-परिमाण-व्रत' कहा है, आवश्यकता परिमाण-व्रत नहीं। इससे यह स्पष्ट होता है, कि वस्तु का ग्रहण करना मात्र परिग्रह नहीं है । परिग्रह वस्तु में नहीं, मनुष्य को इच्छा, आकांक्षा, तृष्णा एवं ममत्व-भावना में है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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