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तीर्थंकर महावीर का अपरिग्रह दर्शन
भगवान् महावीर के चिंतन में जितना महत्व अहिंसा को मिला, उतना ही अपरिग्रह को भी मिला। उन्होंने अपने प्रवचनों में जहाँ-जहाँ आरम्भ - ( हिंसा) का निषेध किया, वहाँ-वहाँ परिग्रह का भी निषेध किया है । चूंकि मुख्य रूपेण परिग्रह के लिए ही हिंसा की जाती है, अतः अपरिग्रह अहिंसा की पूरक साधना है ।
परिग्रह क्या है :
प्रश्न खड़ा होता है, परिग्रह क्या है ? उत्तर आया होगा - धनधान्य, वस्त्र भवन, पुत्र- परिवार और अपना शरीर यह सब परिग्रह है । इस पर एक प्रश्न खड़ा हुआ होगा, कि यदि ये ही परिग्रह हैं, तो इनका सर्वथा त्यागकर कोई केसे जी सकता है ? जब शरीर भी परिग्रह है, तो कोई अशरीर बनकर जिए, क्या यह सम्भव है । फिर तो अपरिग्रह का आचरण ही असम्भव है । असम्भव और अशक्य धर्म का उपदेश भी निर थंक है । उसका कोई लाभ नहीं ।
भगवान् महावीर ने हर प्रश्न का अनेकांत दृष्टि से समाधान दिया है । परिग्रह की बात भी उन्होंने अनेकांत दृष्टि से निश्चित की और कहा वस्तु, परिवार, और शरीर परिग्रह है भी और नहीं भी । मूलतः वे परिग्रह नहीं हैं क्योंकि वे तो बाहर में केवल वस्तु रूप हैं । परिग्रह एक वृत्ति है, जो प्राणी के अन्तरंग चेतना की एक अशुद्र स्थिति है । अतः जब चेतना बाह्य वस्तुओं में आसक्ति, मूर्च्छा, ममत्व ( मेरापन ) का आरोप करती है तभी वे परिग्रह होते हैं, अन्यथा नहीं । मूर्च्छा हो वस्तुतः परिग्रह है ।
इसका अर्थ है - वस्तु में परिग्रह नहीं, भावना में ही परिग्रह है । ग्रह एक चीज है, परिग्रह दूसरी चीज है । ग्रह का अर्थ उचित आवश्यकता
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