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४८ | अपरिग्रह दर्शन
मैं उनकी महत्ता का अनुभव करता है, समझना चाहिए, कि उसके भीतर पूरी अपरिग्रहवृत्ति का उदय नहीं हुआ है। धन की महत्ता को वह भूला नहीं है । वह 'सम-तृण मणि' का विरुद नहीं प्राप्त कर सका है। जिसका जीवन पूर्ण रूप से निस्पृह बन जाता है, वह धन, वैभव से कभी प्रभावित नहीं होता, और जो धन-वैभव से प्रभावित नहीं होता, वही जगत् को अपने उच्च आचार और पवित्र विचार से प्रभावित करता है । जनमानस पर साधक के निर्मल विचार, और पवित्र आचार का ही प्रभाव पड़ता है ।
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साधु के अतिरिक्त दूसरे साधक गृहस्थ समाज में से होते हैं । गृहस्थ पूरी तरह परिग्रह का त्याग नहीं कर सकता, तो उसे सीमा बनानी चाहिए | अपनी इच्छाओं को कम करना चाहिए। खाना होगा तो इतना खाऊँगा पहनना होगा, तो इतना पहन गा, मकान रखना होगा, तो इतने खगा, और पशु रखने होंगे, तो इतने रखूंगा, इस प्रकार अपने जीवन के चारों ओर दीवारें खड़ी कर लेने पर ही वह आगे बढ़ सकेगा । यही है इच्छाओं का परिमाण ।
एक राजा और एक मन्त्री था, और दोनों ही पुत्र हीन । जब राजा और मन्त्री अकेले बैठते, तब घर-गृहस्थी की बातें चल पड़तीं । तब राजा कहता -- देखो, हम दोनों ही के घरों में अंधेरा है । पुत्र होन घर, घर नहीं होता ।
आखिर, राजा और मन्त्री ने देवी-देवताओं की मनौती की । इधरउधर दौड़ धूप की, मगर कोई नतीजा न निकला ।
जिस नगर में राजा रहता था, उस नगर में एक सन्त आए । सन्त बड़े ज्ञानी और विचारवान थे। उनकी वाणी का असर जनता पर पड़ा, और हजारों लोग उनके चरणों में झुकने लगे । राजा ने भी सुना, कि उसके नगर में किसी पहुँचे हुए संत का आगमन हुआ है, तो उसने मन्त्री से कहाअगर वह सन्तान प्राप्ति का कोई उपाय बतला दें, तो हमारे सभी मनोरथ पूरे हो जाएँ । मन्त्री की भी यह अभिलाषा थी ।
किया
दोनों एक दिन सन्त के पास पहुँचे । राजा ने सन्त से निवेदन - आप के अनुग्रह से हमारे यहाँ किसी चीज की कमी नहीं है; किन्तु पुत्र का अभाव हृदय में खटक रहा है, और इस कारण संसार का सारा वैभव भी हमें आनद नहीं दे रहा है । पुत्र के अभाव में हृदय में भी अँधेरा है, घर में भी अँधेरा है, और राज्य में भी अँधेरा है । आपकी दया हो जाए
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