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१५४ ] अपरिग्रह-दर्शन
संस्कृति के उन्नायक मोहम्मद ने भी जीवन के इन्हीं दोनों पक्षों को स्वीकार किया है । बाइबिल में ईसा ने भी विचार के साथ आचार को स्वीकार किया है। चीन के प्रसिद्ध दार्शनिक कन्फ्युसियस और लाओत्से ने भी अल्पाधिक रूप में विचार के साथ आचार को मान्यता प्रदान की है ।
मैं आपसे यह कह रहा था, कि मानव जीवन की परिपूर्णता विचार और आचार के समन्वय से ही होती है, और आचार के बिना विचार का कुछ भी मूल्य नहीं है । इसी प्रकार विचार-विहीन आचार का भी कुछ महत्व नहीं रहता । आचार क्या है इस प्रश्न का उत्तर यदि एक ही शब्द में दिया जा सके, तो वह शब्द अहिंसा ही हो सकता है । अहिंसा में सभी धर्मों का समावेश हो जाता है । क्योंकि धरती के सभी धर्मों ने सीधे रूप में अथवा घूम-फिर कर अहिंसा को ही धर्म माना है। फिर भले ही किसी ने हिंसा को प्रेम कहा है, किसी ने अहिंसा को सेवा कहा है, किसी ने अहिसा को नीति कहा है और किसी ने भ्रातृत्व भाव कहा है । यह सब अहिंसा के ही विविध विकल्प और नानारूप हैं । अहिंसा ही परम धर्म है ।
जैन भवन, लोहामण्डी आगरा दिसम्बर, १९६६
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