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७८ | अपरिग्रह-दर्शन जो कमाओ वह तुम्हारा है। उसे मैं नहीं मांगेगा। उसका अपनी मर्जी के अनुसार भोग कर सकते हो।
__ आखिर लड़कों को यह शर्त मंजूर करनी पड़ी। उन्होंने कहा-तो ठीक है, हम परदेश जाकर कमा खाएंगे।
सब ने पूजी ले ली और पर-देश के लिए विदा हो गए।
सब लड़के चले गए, तो सेठ ने धन का बैल बनाना शरू किया। बैल बनाने में उसका सारा धन लग गया। तब उसे जोड़ी बनाने की सूझी। बिना जोडी एक बैल किस काम का। और उसी तरह का दूसरा बैल बनाने के लिए वह अंधेरे-अंधेरे जंगल में जाता, लकड़ियां इकट्ठी करता और बेचता था। लकड़ियों से करोड़ों की पूर्ति हो सकती थी, यह तो मम्मण सेठ भी समझता होगा, परन्तु मोह ही तो ठहरा । आसक्ति बड़ी विचित्र वस्तु है।
राजा श्रेणिक ने मम्मण सेठ की हकीकत सुनी, और भगवान् महावीर से उसके विषय में पूछा। भगवान् ने कहा-मम्मण सेठ पूर्व जन्म में बहुत गरीब था। एक बार बिरादरी में भोज हआ और लड्ड बांटे गए। इसने लड्ड रख लिए । सोचा-भूख लगेगी तब खाऊंगा। जब वह गांव के बाहर आया, और एक जगह तालाब के किनारे खाने को बैठा, तब उसे एक साधु आता दिखाई दिया। उसके जी में आया- आज अच्छा मौका मिल गया है, तो साधु को भी आहार दान हूँ।
___ यह सोचकर उसने मुनि को निमन्त्रण दिया और बहुत आग्रह किया। मुनि ने कहा-इच्छा है, तो थोड़ा-सा दे दो। उसने थोड़ा-सा दे दिया, और सन्त लेकर चला गया। बाद में वह खुद खाने को बैठा, तो लडड़ बड़ा ही स्वादिष्ट था। लड्ड की उस मिठास ने मुनि को दान देने के उसके रस को बिगाड़ दिया, उसके हर्ष को विषाद के रूप में बदल दिया, उसकी प्रसन्नता को पश्चात्ताप के रूप में पलट दिया। यह सोचने लगा-कहाँ से ये आ गए। इन्हें भी आज ही आना था। यह तो सन्त हैं,
और इन्हें तो रोज-रोज ही लड्ड मिल सकते हैं। मुझे कोन-से रोज मिलते हैं। इन्हें भी आज ही आने की सूझी आज तक तो मेरे यहाँ आए नहीं, और आए भी तो आज आए, व्यर्थ ही मैंने लड्डू दे दिया।
इस प्रकार लड्ड देने के लिये वह पश्चात्ताप करने लगा। उसने
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