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१३० , अपरिग्रह-दर्शन
अर्थ हुआ, कि यह भोग के लिए भोग का त्याग है, त्याग के लिए नहीं। वह स्वस्थ होकर अधिक भोग करना चाहता है । परिस्थिति ने उसे विवश कर दिया है, इसलिए छोड़ना पड़ा है । खाने की इच्छा नहीं मरी है, वह तो अब भी बहुत कुछ खाना चाहता है, पर स्वास्थ्य का मोह खाने नहीं देता। खाना छोड़ने से उसके मन में प्रसन्नता नहीं एक प्रकार की दीनता है, कि हाय मैं खा नहीं सकता। इसी का नाम विवशता एवं लाचारी है, वह त्याग नहीं है।
मेरे कहने का आशय यह है, कि यह जो त्याग है, वह भोग के लिए भोग का त्याग है । एक दूसरा उदाहरण लीजिए, एक व्यापारी विदेश में चला जाता है, धन कमाने के लिए। वह परिवार का आनन्द छोड़ कर जा रहा है। पत्नी, बाल-बच्चे, सगे-स्नेही, मां-बाप-सब का स्नेह और प्यार छोड़कर जाता है, और वहां वह अनेकों प्रकार की तकलीफें उठाता है। न खाने की सुधि है, न पीने की। रहने की भी बड़ी दिक्कत है । इस प्रकार बहुत कष्ट सहना पड़ रहा है, तकलीफें सहनी पड़ रही हैं । एक साधु की तरह ही, अपितु उससे भी ज्यादा दिवकर्ते, कष्ट, वह झेल रहा है । यह क्या है ? क्या यह तपश्चर्या है । साधना है। यह सब कुछ नहीं। एकमात्र भोगाभिलाषा है । बाध्यता को त्याग नहीं कहा जाता है।
हम कलकत्ता वर्षावास के बाद जड़ीसा गए थे। एक विशाल पहाड़ी दर को लांघकर बहत घने जंगल में से गुजर कर पहाड़ की तलहटी में एक छोटे से गांव में पहुँचे। बियावान जंगल । आसपास आदिवासियों की झोंपड़ियां। अधनंगे अधभूखे लोग। हाथ में तीर-कमान साधे, शिकार की खोज में घूमते जंगली आदिवासी। एक मारवाडी भाई का पता मालम हुआ, तो हम लोग वहीं चले गए। देखते ही प्रसन्न होकर कहा--- 'महाराज, पधारिए । बड़े भाग्य से दर्शन मिले ।' ठहरने को जगह दी, उसने बड़ी श्रद्धा दिखाई। बातचीत चल पड़ी, तो हमने कहा .. "तुमने यहां कहां आसन जमाया है, पहाड़ों और जंगलों के बीच में। बड़ा विचित्र स्थान है यह तो।" वह अलवर (राजस्थान) की तरफ का था. बोलामहाराज स्थान की क्या बात कहते हैं। हमें तो पैसा चाहिए । पैसा यदि दोजख में भी मिलता हो, तो हम वहां भी दुकान खोल लेंगे।" हँस पड़े, हम सब उसकी बात सुनकर । बात भी खब गजब की कही उसने, बोला ... "महाराज, यहां बुरा हाल है, हमारा । लेकिन पेट है न, उसे तो पालना है। उसे पालने के लिए पैसा चाहिए, इसलिए यहाँ घर से इतनी दूर पड़े
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