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१४६ / अपरिग्रह-दर्शन
इसे छोड़कर भाग खड़े होना, यह जब प्रारम्भ हुआ, तब कृषि का धन्धा हमारी नजरों में हेय हो गया। हमारा सामाजिक दृष्टिकोण यह बन गया कि कृषि का धन्धा निकृष्ट कोटि का है, अत: हेय है। कृषि द्वारा अन्न का उत्पादन हो. इसके पीछे हमारा अहिंसा का दृष्टिकोण यह था, कि मांसाहार की प्रवृत्ति लोगों में बन्द हो और वे कृषि की ओर आकृष्ट हों । अनेक प्रकार के फल और अनेक प्रकार की वनस्पति, प्रकृति के द्वारा प्राप्त हो सकती है, और हमारा सात्विक जीवन उन पर निर्भर हो सकता है। जब कृषि जैसे सात्विक कर्म को अपनाया जाएगा, तभी मांसाहार जैसे भयंकर पाप से हम बच सकेंगे। मांसाहार छोड़ना, यह हमारी सांस्कृतिक जीवनयात्रा का प्रारम्भिक उद्देश्य है, और इस उद्देश्य की पूर्ति कृषि-कम से ही हो सकती है। इसी आधार पर जैन-संस्कृति में कृषि-कर्म को अल्पारम्भ और आर्य-कर्म कहा गया है।
अभिप्राय यह है, कि अहिंसा की स्मृति जितनी हमारी आगे बढ़ी, उसके साथ-साथ उसमें एक धुंधलापन भी आगे बढ़ता गया, और हमारा उसमें भी मूल-अभिप्राय था, वह समय के साथ-साथ क्षीण होता चला गया। इसलिए आगे चलकर कुछ लोगों ने कृषि को महारम्भ स्वीकार कर लिया, और जब उसे महारम्भ स्वीकार कर लिया, तो उसे छोड़ने की बात भी लोगों के ध्यान में आने लगी। लोग अपनी बात सिद्ध करने के लिए आगम का आधार तलाश करने लगे, परन्तु आगम में कहीं पर भी कृषि को महारम्भ नहीं कहा गया। क्योंकि आगम में जो महारम्भ का फल बताया है, उसमें कहा गया है, कि महारम्भ नरक में जाने का कारण बनता है। अब विचार कीजिए, कि जब कृषि को महारम्भ बताया गया तब उसकी फल श्र ति के अनुसार नरक में जाने को बात भी लोगों के सामने आई। लोगों ने विचार किया, परिश्रम भी करें, और फिर नरक में भी जाना पड़े, तो इस प्रकार का गलत धन्धा क्यों करें। इस प्रकार के मिथ्या तकों से जनता के मानस को बदलने का प्रयत्न किया गया। परिणामतः जैनों ने कृषि कर्म का परित्याग कर दिया। अन्यथा भारतीय संस्कृति और विशेषतः जैन संस्कृति में मूलतः अहिंसा का दृष्टिकोण लेकर चला था, यह कृषि-कर्म । अहिंसा और होलिका पर्व :
मैंने आपसे भगवान् ऋषभदेव की बात कही थी। भगवान् ऋषभदेव के युग में कृषि-कर्म एक पवित्र-कर्म समझा जाता था। उस युग के मानव
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