Book Title: Aparigraha Darshan
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 162
________________ जीवन और अहिंसा | १५१ चार प्रकार के मनुष्य : इसी प्रकार भगवान् महावीर ने मानव-समाज के मनुष्यों का चार भागों में वर्गीकरण किया है --एक मनुष्य वह है, जो श्रत-सम्पन्न तो है, किन्तु शील-सम्पन्न नहीं है। दूसरा मनुष्य वह है जो शीलसम्पन्न है, किन्तु श्रुत-सम्पन्न नहीं है। तीसरा मनुष्य वह है- जो श्रत-सम्पन्न भी है और शोल-सम्पन्न भी है। चौथे प्रकार का मनुष्य वह है जो न थ त-सम्पन्न है और न शोल-सम्पन्न ही। मानवसमाज का यह वर्गीकरण मनोवैज्ञानिक आधार पर किया गया है। इसका रहस्य यही है, कि मानव-समाज में वहो मनुष्य सर्वश्रेष्ठ माना जाता है , जो श्रु त-सम्पन्न भी हो, और शोल-सम्पन्न भो हो । यदि उसके जीवन में उक्त दोनों तत्वों में से एक भी तत्व का अभाव रहता है तो वह जीवन आदर्श जीवन नहीं रहता। आदर्श जोवन वही है, जिसमें श्रत अर्थात अध्ययन एवं ज्ञान भी हो और साथ हो शोल अर्थात् सदाचार भी हो। श्रत और शील के समन्वय से हो, वस्तुतः मनुष्य का जीवन सुखमय एवं शान्तिमय बनता है । यदि मनुष्य के जीवन में श्रत का अर्थात् ज्ञान का प्रकाश तो हो, किन्तु उसमें शील को सुरभि न हो, तो वह जीवन, श्रेष्ठ जीवन नहीं कहा जा सकता। इसके विपरीत यदि किसी मनुष्य के जीवन में शील तो हो, शील की सुरभि उसके जीवन में महकती हो, किन्तु उसमें श्रत एवं ज्ञान का प्रकाश न हो, तब भी वह जीवन एक अधूरा जीवन कहलाता है, एक एकांगी जीवन कहलाता है। जीवन एकांगी नहीं होना चाहिए। भारतीय संस्कृति में एकांगी जीवन को आदर्श जोवन नहीं कहा गया है। अनेकांगी जीवन हो वस्तुतः सच्चा जो बन है। यह अनेकांगता श्रत एवं शील के समन्वय से ही आ सकती है। ज्ञान और क्रिया तथा विचार और आचार दोनों की परिपूर्णता हो जीवन की सम्पूर्णता है । धर्म और दर्शन : भारतीय संस्कृति में विचार और आचार को तथा ज्ञान और क्रिया को जीवन-विकास के लिए आवश्यक तत्व माना गया है। दार्शनिक जगत में एक प्रश्न प्रस्तुत किया जाता है, कि धर्म और दर्शन-इन दोनों में से जीवन-विकास के लिए कौन सा तत्व परमावश्यक है। पाश्चात्य दर्शन में जिसे Religion और Philosophy कहा जाता है, भारतीय परम्परा में उसके लिए प्रायः धर्म और दर्शन का प्रयोग किया जाता है। परन्तु मेरे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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