Book Title: Aparigraha Darshan
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 160
________________ जीवन और अहिंसा | १४ε हिंसा को दूर करते हैं, और स्वच्छता को लाकर हम अहिंसा की आराधना करते हैं । दीपावली पर्व की आराधना भी एक प्रकार से अहिंसा की आराधना है । प्रकाश की आराधना को भारतीय संस्कृति में बड़ा ही महत्वपूर्ण समझा गया है । अहिंसा और कमल : भारतीय साहित्य और संस्कृति में प्रकाश को उपासना के बाद कमल को भी बड़ा गौरवपूर्ण स्थान मिला है। जोवन के प्रत्येक पहलू में कमल आकर खड़ा हो गया है । मुख कमल, कर-कमल, चरण-कमल और हृदय-कमल । भारतीय संस्कृति ने सम्पूर्ण मानव शरीर को कमलमय बना दिया है। नेत्र को भी कमल कहा गया है । कमल भारतीय संस्कृति में और भारतीय साहित्य में इतना अधिक परिव्याप्त हो चुका है, कि उसे जीवन से अलग नहीं किया जा सकता । साहित्य, संस्कृति और जीवन में कमल इतना व्यापक है, कि वह हमारे आध्यात्मिक दृष्टिकोण में भी प्रवेश कर गया है । महाश्रमण महावीर ने अपने एक प्रवचन में कहा है, कि अध्यात्म साधक को संसार में इस प्रकार रहना चाहिए, जिस प्रकार सरोवर में कमल रहता है । कमल जल में रहता है, कीचड़ में पैदा होता है, पर उस कोचड़ अथवा जल से वह लिप्त नहीं होता । संसार में रहते हुए भी संसार के सकल्पों और विकलों को माया से विमुक्त रहना, यही जीवन की सबसे बड़ो कला है । कमल के समान निर्लिप्त रहने वाला व्यक्ति, फिर भले ही वह कहीं पर भो क्यों न रहता हो, उसे किसी प्रकार का भय नहीं रहता । गोता में श्रीकृष्ण ने भी यही बात कहो है, कि अर्जुन ! तुम संसार में उसी प्रकार अनासक्त रहो, जिस प्रकार जल में कमल रहता है । इस प्रकार कमल हमारे जीवन में इतना ओत-प्रोत हो चुका है, कि जीवन से उसे अलग नहीं किया जा सकता । भारतीय संस्कृति में शरीर को भी कमल कहा गया है, और मानव-मन को मो कमल कहा गया है । हमारे प्राचीन साहित्य में पद्मबन और कमलासन जैसे शब्दों का प्रयोग भी उपलब्ध होता है। जीवन में कमल से बहुत कुछ प्रेरणा हमें प्राप्त होती है । यही कारण है, कि हमल हमारे जीवन में इतना परिव्याप्त हो चुका है, कि उसे जीवन से अलग नहीं किया जा सकता । जो व्यक्ति संसार में कमल बनकर रहता है, उसे किसी प्रकार का परिताप नहीं रहता । कमल की उपासना करने वाला व्यक्ति भो कमल के समान ही स्वच्छ और पावन बन जाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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