Book Title: Aparigraha Darshan
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 146
________________ इच्छाओं के द्वन्द्व का समाधान | १३५ मनुष्यों के रक्त से भी शान्त नहीं हुआ। धन, धरती और नारी की लिप्सा ही तो युद्धों का मूल बीज रहा है। दुराशा में सर्वनाश : कणिक के जीवन के प्रसंग में एक बात और सामने आती है, वह यही, कि अनावश्यक इच्छाएँ जीवन के लिए सर्वथा अनुपयोगी हैं। यह संसार के विनाश का कारण होती हैं, सर्वनाश का ही कारण बनती हैं, निर्माण का नहीं । अतः इच्छाओं का नियन्त्रण आवश्यक है । वैशाली-विजय के बाद कणिक की उहाम इच्छाएँ चक्रवर्ती बनने का स्वप्न देखने लगीं। भगवान् महावीर के समक्ष उसने जब अपना यह दुःस्वप्न प्रकट किया, तो भगवान् ने उसे समझाया-"कणिक, यह आशा दुराशामात्र है। चक्रवर्ती बारह हो चुके हैं, अब इस अवसर्पिणी काल में कोई चक्रवर्ती सम्राट नहीं होगा। चक्रवर्ती बनने का दुःस्वप्न छोड़ दो। जो तुम्हारे दुष्कर्मों का प्रतिफल है, उसे शान्त-भाव से स्वोकार करो !" किन्तु कणिक न माना। आप कहेंगे, कि जब वह भगवान का भक्त था, तो उसने उनकी बात क्यों नहीं मानो। लेकिन भगवान् और इन्सान के बीच जब शैतान आ जाता है, तो वह इन्सान को भगवान की ओर से हटा देता है। कणिक का अहंकार शैतान बन गया । कणिक को चक्रवर्ती बनने की इच्छा भगवान् के उपदेश से शान्त नहीं हुई। वह इतना तो जानता ही होगा, कि भगवान् जो कुछ कह रहे हैं, वह त्रिकाल-सत्य है । ससार को कोई भी शक्ति उस सत्य को बदल नहीं सकती। किन्तु फिर भी उसका दुस्साहस देखिए, कि वह अपना दुःसकल्प नहीं छोड़ सका । इच्छाओं की घनघोर कालो घटा उसके मन और मस्तिष्क पर ऐसी छाई, कि सत्य की ज्योति किरण का वह दर्शन ही नहीं कर सका। कणिक ने अपने चक्रवर्ती बनने के स्वप्न को साकार करने की ठान ही ली। चक्रवर्ती के असलो रत्न नहीं पा सका, तो उसने नकलो चौदह रत्न बना लिए। अपने मित्र राजाओं का दल-बल लेकर वह छह खण्ड विजय करने को निकल पड़ा। विजय-यात्रा करते-करते वह पहुँचता हैबैताढ्य पर्वत की तमिस्रा गुफा के द्वार पर । गुफा के देव ने पूछा- “तुम कौन हो ? किसलिए आए हो?" कूणिक ने कहा--"मैं चक्रवर्ती है। छह खण्ड विजय करने जा रहा हूँ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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