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आसक्ति : परिग्रह | ६६ जाता था, और उसका मतलब यह होता था, कि यह भेंट स्वीकार कर ली
बुद्ध के सामने हीरों और मोतियों के रूप में लाखों की सम्पत्ति आई, और उन्होंने उस पर अपना हाथ रख दिया। उसके बाद एक बुढ़िया आई वह मालिन थी। उसके पास मुश्किल से आधा अनार बचा हुआ था। बुढ़िया वही अनार लेकर आई और उसने ज्यों ही वह भेंट के रूप में रखा, कि बुद्ध ने उसके ऊपर दोनों हाथ रख दिए ।
बड़े-बड़े धनी वहां मौजूद थे, और वे लाखों के जवाहरात समर्पित कर चुके थे। अपनी भेंट की महत्ता का अनुभव करके वे अकड़े हए बैठे थे। उन्होंने बुद्ध का यह व्यवहार देखा, तो हैरान और चकित रह गए। उन्होंने कहा - यह क्या हो गया ? हमने इतना बड़ा दान दिया, तो उस पर केवल एक हाथ रखा और इस बुढ़िया के आधे अनार के टुकड़े पर दोनों हाथ रख दिए। इसका क्या कारण है । ऐसा क्यों किया ?
आखिर किसी ने पूछ लिया-भदन्त ! इस बुढ़िया के इस तुच्छ दान को इतना महत्व क्यों मिला है ?
बुद्ध ने कहा - तुम अभी समझे नहीं। तुम्हारे पास तो इस धन को देने के बाद भी बहुत-सा धन बच गया होगा; परन्तु इस बेचारी के पास क्या बचा है ? इसने तो आधे अनार के रूप में अपना सर्वस्व ही मुझे सौंप दिया है । बड़े से बड़े दान का मोल हो सकता है, पर सर्वस्व-दान अनमोल है। बुढ़िया के इस सर्वस्व-दान की तुलना साम्राज्य-दान से भी नहीं की जा सकती। इसीलिए मैंने उस पर दोनों हाथ रखे हैं।
__इसीलिए मैं कहता है, कि वस्त कोई मुख्य चीज नहीं है, वरन उसके पीछे जो तमन्ना है, इच्छा है और भावना है, वही मुख्य है। इस तरह परिग्रह की आधारशिला इच्छा है, वस्तु नहीं। वस्तु का अपने में . कोई महत्व नहीं।
__यह तो आपको मालूम हो है, कि संसार में जितने भी सम्प्रदाय हैं, और उनमें दीक्षित होने वाले साधक हैं, सभी कुछ न कुछ उपकरण रखते हैं । सम्भव है, कोई कम रखे और कोई अपेक्षाकृत अधिक । मगर उपकरणों के सर्वथा अभाव में किसी का काम नहीं चल सकता । जब शरीर के साथ उपकरणों की अनिवार्य आवश्यकता है, और वै रखे भी गए हैं तो उनके प्रति निर्ममत्व-भाव के अतिरिक्त और क्या सम्भव हो सकता है ?
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