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१२२ । अपरिग्रह दर्शन साधुओं को भी लग गया है। और इसी कारण आज जीवन में बहुरूपियापन आ गया है । बाहर-भीतर में अन्तर आ गया है। वैराग्य, वैराग्य नहीं रह कर नाटक बन गया है। जीवन की एकरूपता कब :
भगवान महावीर के समय में भी साधना के क्षेत्र में यह द्वैध चल रहा था। इस द्वैध को समाप्त करने के लिए ही उन्होंने आत्मदृष्टि दी। उन्होंने कहा-जब साधक कोई भो तप, क्रिया एवं साधना अपनी आत्मा के लिए करेगा, उसमें आत्म-दष्टि रहेगी, तो वह जीवन में कभी पाखण्ड नहीं कर सकेगा। जो रूप उसका नगर के चौराहे पर देखने को मिलेगा, वही रूप एकान्त कुटी में भी मिलेगा -"सुत्ते वा जागरमाणे वा, एगो वा परिसागओ वा' सोते और जगते में, अकेले और जन-परिषद् में, उसके जीवन में कोई अन्तर नहीं दिखाई देगा, कोई बहरूपियापन नहीं मिलेगा। चुंकि वह जो कुछ करेगा, वह अपने लिए करेगा, अपनी आत्मा के लिए करेगा, न कि छाप डालने के लिए। उसका रूप जैसा भीतर होगा, वैसा ही बाहर होगा, और जैसा बाहर होगा, वैसा ही भीतर में होगा।
"जहा अंतो तहा बाहिं,
जहा बाहिं तहा अंतो ॥" यही उसका आदर्श होगा। वह जैसा बोलेगा वैसा ही करेगा-- 'जहावादी तहाकारी'
मैं समझता हूँ--साधक जीवन का यह सर्वोत्तम रूप है, सच्चा चित्र है। किन्तु यह स्थिति तभी आ सकती है, जब साधक का वैराग्य -अन्तः स्फुरित होगा। भीतर से ज्योति जलेगी, और वही ज्योति वस्तुतः उसके समूचे जीवन को आलोकित करती रहेगी। तभी 'निर्वाण' होगा :
आप पूछेगे यह ज्योति कब जलेगो, और यह वैराग्य का सच्चा रूप जीवन में कब निखरेगा? मैं आपसे कह देना चाहता है कि जब आप और हम अपनी वृत्तियों को दबाने का नहीं, अपितु निमल करने का प्रयत्न करेंगे। बाहरी दबाव से नहीं, बल्कि अन्तःकरण की पवित्र प्रेरणा से प्रेरित होंगे । जब वृत्तियां बुझ जाएंगी, तो निर्वाण अपने आप प्राप्त हो जाएगा।
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