________________
साधक- जीवन : समस्याएँ और समाधान | १२१
शरीर को हानि पहुँचने का हेतु देते हैं, धन की बर्बादी का तर्क देते हैं, यह सब भौतिक तर्क हैं, भौतिक तर्क के आधार पर त्याग का महल खड़ा करना -- ठोस काम नहीं है । बहुत से लोग स्वास्थ्य बनाए रखने के लिए भी धूम्रपान करते हैं, मद्य पीते हैं । इसलिए मैं साचता है, इन वृत्तियों को बदलने के लिए आत्म-दृष्टि जगनी चाहिए। हमारा मूल्यांकन आत्मा के आधार पर होना चाहिए ।
वैराग्य या नाटक :
बाहरी दबाव से जो त्याग और वैराग्य का आचरण होता है, वह कभी-कभी बड़ा नाटकीय बन जाता है । उसमें लोगों को प्रभावित करने की आकांक्षा पैदा हो जाती है । और उसके लिए नाटक रचना पड़ता है, दिखावा करना पड़ता है ।
एक बार हम कुछ साधु पालनपुर (गुजरात) से लौटते हुए राजस्थान के साचौर गांव में गए। पुराना क्षत्र था, किसी दूसरी संप्रदाय से प्रभावित था । एक बड़े मुनि जो अपने शिष्य से बोले - आज गोचरो में ध्यान रखना, छाप डाल के आना कि लोग याद रखें कि, हाँ, कोई आत्मार्थी उत्कृष्ट सन्त आये थे !
शिष्य भी बड़ा होशियार था । गोचरी को निकला तो बड़ो मोन मेख लगाने लगा -- 'यह असूझता है। यह यों है । वह यों है ।' लोग देख - कर दंग रह गये, कि 'महाराज ! बस, ऐसे आत्मार्थो साधु तो देखे ही नहीं, कितनी ऊंची क्रिया है ! '
शिष्य ने आकर गुरुजी से बताया कि “महाराज ! आपकी ऐसी छाप डाल दी है कि लोग पिछले सब आत्मार्थियों को भूल गये ।"
मुझ यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ और हँसी भो आई । मैंने कहा यह क्या बात है ? रोज जैसा करते हा वैसा आज क्यों नहीं किया ? या आज जैसा किया है वैसा रोज क्यों नहीं करते ?
इस पर वे बोले - 'हमें रोज-रोज इस गांव में थोड़ा ही रहना है ? आज आये हैं और कल चले जाएँगे, पर, लोग याद तो करेंगे, कि हाँ, कोई आत्मार्थी उग्र क्रिया- कांडी साधु आये थे ?
बात यह है कि यह छाप डालने का रोग सिर्फ आपको ही नहीं, हम
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org