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१०४ | अपरिग्रह-दर्शन कर व्यक्ति और राष्ट्र अपनी दौड़ समाप्त करेंगे, या नहीं ! इस सम्बन्ध में आज के मनुष्य को गम्भीर विचार करना चाहिए ।
कई लोग कहते हैं. सन्तोष तो नपुंसकों का शास्त्र है । सन्तोष की शिक्षा ने मनष्य को हतवीर्य, उद्यमहीन और अकर्मण्य बना दिया है। वह जीवन की प्रगति में जबर्दस्त दीवार है।
___ मैं कहता है ---भौतिकवाद के हिमायती और ऐसा कहने वाले लोग जीवन की कला से अनभिज्ञ हैं। उन्होंने जीवन के 'शिव' को पहचाना ही नहीं है। वे भौतिक विकास और प्रगति को ही महत्व देते हैं, और जीवन की सुख-शान्ति की उपेक्षा करते हैं। इसी दृष्टिकोण का अर्थ होगा--- अनन्त-अनन्त काल व्यतीत हो जाने पर भी पारस्परिक संघर्षों का जारी रहना, प्रतिस्पर्धाओं का बढ़ते जाना और दौड़-धूप बनी रहना । जहां सन्तोष को कोई स्थान नहीं, वहां विराम कहां, और विश्राम कहां? वहां दौड़ना और दौड़ते रहना हो मनुष्य के भाग्य में लिखा है, और उसे इतना भी अवकाश नहीं है, कि वह अपनी दौड़ के नतीजे पर घड़ी भर सोचविचार भी कर सके।
सन्तोष को कायरों का लक्षण समझना, तो और भी बड़ा अज्ञान है। अपनी लालसाओं पर नियन्त्रण स्थापित करना सन्तोष कहलाता है, और लालसाओं पर नियन्त्रग करने के लिए अन्तःकरण को जीतना पड़ता है। अन्तःकरण को जीतना कायरों का काम नहीं है । इसके लिए तो बडी वीरता चाहिए । शास्त्रकारों ने भी कहा है -
जो सहस्सं सहसाणं, संगामे दुज्जए जिणे । एगं जिणेज्ज अप्पाण, एस से परमो जओ ॥
___--- उत्तराध्ययन एक मनष्य विकट संग्राम करके लाखों योद्धाओं पर विजय प्राप्त करता है, तो निस्सन्देह वह वीर है; किन्तु जो अपनी अन्तरात्मा को जीतने में सफल हो जाता है, वह उससे भी बड़ा वोर है । अन्तःकरण को जीत लेने वाले की विजय उत्तम और प्रशस्त विजय है। यही सच्ची विजय है।
रावण बड़ा विजेता था । संसार के वीर पुरुष उसकी धाक मानते थे, और कहते हैं, अपने समय का वह असाधारण योद्धा था। किन्तु वह भी अपने अन्तःकरण को अपने काब में न कर सहार, अपनी लालसाओं पर नियन्त्रण कायम न कर सका । और, उसकी इस निर्बलता का परिणाम यह
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