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आनन्द-प्राप्ति का मार्ग | १११ इच्छाएँ तो और भी हैं, पर ये तीन खास इच्छाएँ मेरी अधरी रह गईं। मैंने संसार को इस छोर से उस छोर तक अपनी विजय दुन्दुभि से मुखरित कर दिया। सोने की लंका बसाई, और अनेक अद्भुत करिश्मे दिखाए। किन्तु फिर भी मेरी असख्य. इच्छाएं अधरी रह गईं। बस, उन्हीं के दुःख और दर्द से मैं छटपटा रहा है । उन्हीं इच्छाओं में से मुख्य ये तीन इच्छाएँ थीं।
जब रावण जैसा वैभव-सम्पन्न और पराक्रम-शाली व्यक्ति भी यह बात कहता है, कि मेरी इच्छाएँ अपूर्ण रह गईं, तो दूसरों की तो विसात ही क्या है ? साधारण लोगों की इच्छाएँ कहां तक पूर्ण हो सकती हैं ? अनन्तकाल से स्वर्ग, नरक आदि के चक्कर पर चक्कर लगाते रहे, इच्छाएं बनती रहीं, मिटती रहीं और फिर दुगने वेग से उफनती रहीं। स्वर्ग के साम्राज्य का इन्द्र बनने पर भी इच्छाओं की पति नहीं हई । चक्रवर्ती सम्राट् बनने पर भी आकांक्षाएँ अधूरी ही छोड़कर जाना पड़ा । इच्छाओं का पेट ऐसा है, जो कभी नहीं भर सकता। मन का पेट :
एक करोड़पति सेठ ने कहा, कि मैं धर्माचरण के लिए अच्छा भाव रखता है, सत्संग में जाने का भाव भी काफी है, परन्तु पेट के लिए इतनी दौड़-धूप करनी पड़ती है, कि अवकाश ही नहीं निकल सकता । तो क्या वास्तव में ही पेट इतना बड़ा है, कि करोड़पति हो जाने के बाद भी वह नहीं भरता । बात ऐसी नहीं है । वास्तव में यह चमड़े का पेट तो बहुत ही छोटा है । आधा सेर धान से ही भर सकता है। किन्तु मन का पेट इतना विशाल है, कि वह कभी भी भर नहीं पाता । मेरु पर्वत जितने बड़े मिष्टान्न के भण्डार से भी उसकी तृप्ति नहीं हो पाती।
"तन की तष्णा तनिक है, आध पाव जे सेर ।
मन की ताणा अनन्त है, गिरते मेर के मेर॥" यह मन की भूख ही है, जिसे धरती के हजारों-हजार चक्रवर्ती और स्वर्ग के इन्द्रों के साम्राज्य से भी भरना सम्भव नहीं है। चमड़े के पेट का घेरा इतना क्षद्र है, कि उसके भरने पर आखिर रोक लगानी ही पड़ती है, किन्तु मन का पेट ऐसा है, कि उसमें चाहे जितना भरा जाए, वह कभी भी भरता नहीं । जलती अग्नि में कोई यह सोचकर घी डाले कि यह शान्त हो जाएगी, तो यह उलटी बात होगी। वह तो पहले से भी कई गुना अधिक
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