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६६ / अपरिग्रह-दर्शन भी नहीं थे, और कोई बड़े दार्शनिक भी नहीं। किन्तु जब लड़का मर गया, और नगर के लोग उनके यहां गए, तो लौट आकर उन्होंने कहा-हमने अपने जीवन में एक भी ऐसा आदमी नहीं देखा, जो लम्बा-चौड़ा कारबार करता हो, और अपने लड़के को विदेशों में भेजने का इरादा कर रहा हो, किन्तु अचानक उसके मर जाने पर एक भी आंसू न बहाए । वास्तव में, उन्होंने एक भी आंसू न बहाया-अपने होनहार नौजवान लड़के की मौत पर उन्होंने कहा-आने वाले को तो जाना ही होगा । मिलने वालों को बिछुड़ना ही होगा। मैं पहले चला जाता, या वह पहले चला गया। वह पहले चला गया, तो अपना वश ही क्या है ?
तो, सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण प्रश्न यही है, कि मनुष्य के पास जो कुछ है, उस पर भी उसकी आसक्ति कम से कम हो जाए। और, आसक्ति जितनी ही कम होती जाएगी, परिग्रह का अंश कम होता जाएगा। इस प्रकार परिग्रह के रहते भी अपरिग्रही बनना एक उच्च श्रेणी की कला है, और उस कला को कोई बड़ा कलाकार ही प्राप्त कर पाता है। इस कला को प्राप्त करने के लिए न गम्भीर शास्त्रों के ज्ञान की आवश्यकता है, और न किसी विशिष्ट क्रिया-काण्ड की। इसके लिए तो उस प्रकार का जीवन बनाने की ही आवश्यकता होती है। अपनी मनोवृत्ति का निर्माण करने से यह कला हस्त-गत हो जाती है। इस कला को जो हस्त-गत कर लेगा, वह संसार में किसी भी परिस्थिति में, दारुण से दारुण प्रसंग पर भी नहीं रोएगा। उसके पास हजारों-लाखों आएंगे और जाएंगे, परिवार घटेगा
और बढ़ेगा, एवं उथल-पुथल होगी, पर वह प्रत्येक अवसर पर अलिप्त रहेगा। सुख में मग्न होकर फूलेगा नहीं, और दुख में मुरझाएगा भी नहीं ।
कोई भी मनुष्य संसार का खदा बन कर नहीं बैठ सकता। मनुष्य तो पामर प्राणी है। मिट्टी का पुतला है, और धीमी-धीमी होने वाली हृदय की धड़कन पर उसकी जिन्दगी निर्भर है। उसकी अपनी जिन्दगी का भी क्या भरोसा है ? अभी है, और अभी नहीं है । ऐसी स्थिति में दूसरी चीजों पर कैसी ममता ? कैसी आसक्ति ? वह तो आएँगी भी और जाएंगी भी। आने पर जो हंसेगा, जाने पर उसे रोना पड़ेगा। अतएव जो आने पर हर्ष और जाने पर विषाद नहीं करता, वही जीवन की कला को प्राप्त कर सकता है । जिसके हृदय में आसक्ति नहीं है, तृष्णा नहीं है, राग नहीं है, वह प्रत्येक परिस्थिति में समभाव में रहेगा, और तब तक कोई भी दुःख उसे स्पर्श नहीं कर सकेगा। समभाव के वन-कवच को धारण
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