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परिग्रह क्या है ? | ८३
हैं । कहां तो मैं गरीब का लड़का था, कहाँ आज लाखों का कारबार लेकर बैठा है। मेरे घर में क्या था! कुछ नहीं। फिर भी साहस करके अपने हाथों इतना पैसा कमाया है। पैसा तो हाथ का मैल है। यह अवसर क्या बार-बार हाथ आने वाला है ? मैं अपने ग्राम वालों को निराश नहीं करूंगा।
और, इसके बाद, सेठजी ने एक धोती, लोटा और डोर हाथ में लेकर दुकान से नीचे उतरते हुए कहा-लो, मैं यह सारी दूकान तुम्हें समर्पण करता है। मेरे पास क्या था ? आज मैंने काफी कमा लिया है। लोगों में मेरी इज्जत आबरू भी है । मैं कहीं भी दुकान खोलकर बैठ गा तो कमाखाऊँगा!
गांव वाले खेतान की यह उदार वृत्ति देखकर दंग रह गए। सेठजी उस दुकान से उतरकर फिर नहीं चढ़े। उन्होंने दसरी जगह अपना व्यापार किया। यह दान नहीं, महान् त्याग था।
यह उदाहरण क्या बतलाता है ! यही कि मनष्य को संसार में पहली मक्खी की तरह बैठना चाहिए, कि जब कभी ममता छोड़ने का अवसर आए, तो छोड़कर दूर हट जाए।
_इन्सान में अजब शक्ति है। उसमें जब ममत्व को तोड़ने की वृत्ति आती है, तब एक मिनट भी नहीं लगती। उस बन्धन को तोड़कर झटपट अलग हो जाता है । यही कारण है, कि भगवान महावीर परिग्रह पर सीधी चोट नहीं करते, पर परिग्रह की वृत्ति पर सीधा प्रहार करते हैं।
भारतवर्ष में बड़े-बड़े साम्राज्यवादी और चक्रवर्ती आदि आए, परन्तु जब उन्हें परिग्रह छोड़ना हआ, तो एक मिनट में छोड़कर अलग हो गए । साँप केंचुली को छोडकर जैसे उसकी ओर झांकता भी नहीं है, उसी तरह उन्होंने अपने वैभव को ठुकरा कर वापिस देखा भी नहीं । वे साधु बन गए । साधु बन कर भी उन्होंने वस्त्र और पात्र आदि रखे, किन्तु उनकी वृत्ति में उन वस्तुओं पर आसक्ति नहीं थी, ममता नहीं थी। अतएव वह वस्तुएं परिग्रह रूप भी नहीं थीं। निष्कर्ष यह निकला, कि जितने अंश में ममत्व है, उतने ही अंशों में परिग्रह है। जहां ममता नहीं, वहां बन्धन भी नहीं।
एक चिउँटी है। उसके पास शरीर को छोड़कर और क्या है? वह शरीर को लेकर चल रही है। उसके पास वस्त्र का एक तार भी नहीं है ।
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