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परिग्रह क्या है ? | ८७
और वह ज्यों की त्यों बनी रही, तो फिर ऊपर से अपरिग्रह व्रत या परिग्रहपरिमाण व्रत को अंगीकार कर लेना भी कुछ अर्थ नहीं रखता । उसका व्रत लेना, अर्थ-हीन है ।
ऐसा सोचकर, जिन्हें वैभव प्राप्त है, उन्हें अपनी इच्छाओं पर ब्रेक लगाना चाहिए, और जिनके पास कुछ नहीं है, उन्हें अपना जीवन चलाने के लिए कुछ मर्यादा करके शेष पर ब्र ेक लगा लेना चाहिए। जैनधर्म तो अनेकान्तवाद पर चलता है । उसके यहाँ एकान्त नहीं है । जिन्हें सुखमय जीवन व्यतीत करना हो, और स्वर्गीय सुखों का झरना यहीं बहाना हो, उन्हें जैनधर्म के अपरिग्रह-वाद की पगडंडी पर चलने का प्रयास करना चाहिए ।
ब्यावर अजमेर २०-११-५०
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