________________
आसक्ति : परिग्रह | ६३ यदि वस्तु को परिग्रह मान लेंगे, तो भिक्ष को परिग्रही मानना पड़ेगा, और परिग्रही माने बिना बच नहीं सकते हैं।
हमें सिद्धान्त के रूप में, और विचारों के रूप में विचार करना है; सम्प्रदाय के दृष्टिकोण से विचार नहीं करना है। अगर सम्प्रदाय के दृष्टिकोण से विचार करेंगे, तो बड़ी गलतफहमी में पड़ जाएंगे। अगर आपकी मान्यता के पीछे कोई सुदढ आधार नहीं है, कोई तक और युक्ति नहीं है। आप भले ही उसे मानते रहें, संसार मानने को तैयार नहीं होगा।
हाँ, तो साधु वस्तु रखता है, किन्तु परिग्रही नहीं है, ऐसी हमारी मान्यता है, और संसार भर के सभी दर्शनों के साधुओं के विषय में उनउन दर्शनों की ऐसी ही मान्यता है। इसका अर्थ यह है, कि साधु वस्तुएँ तो रखता है, किन्तु परिग्रह नहीं रखता है।
__ यह बात मैं उन साधुओं के विषय में कह रहा है, जो वास्तव में साधु हैं, और जो अपने धर्म के अनुसार चल रहे हैं। मैं केवल नामधारी साधुओं की वकालत नहीं कर रहा हूँ। हमें किसी वर्ग-विशेष या व्यक्तिविशेष की वकालत करना भी नहीं हैं, करनी है तो सिर्फ सिद्धान्त की वकालत करनी है।
तो, साधु के पास वस्तुएँ होने पर भी वह अपरिग्रही है। आपके पास लड़का है. तो वह परिग्रह है; किन्तु साधु के पास शिष्य है, तो वह परिग्रह नहीं है। भगवान महावीर के पास चौदह हजार साधुओं और छत्तीस हजार साध्वियों का परिवार था; किन्तु वह वृहत् परिवार, परिग्रह नहीं कहलाया, और आपके पास दो तीन पुत्र हो, गए तो वह परिग्रह का बढ़ना कहलाता है। हमें इसी मुद्दे पर विचार करना है । आखिर बात क्या है ?
आपकी जात-पात हैं, वह परिग्रह है, और हमारे गच्छ है, सम्प्रदाय है, किन्तु वह परिग्रह नहीं है।
अर्थ यह निकला, कि वस्तु हो या न हो यह मुख्य बात नहीं है; मुख्य बात ममता और आसक्ति का होना और न होना ही है । उपकरण, शिष्य और गच्छ होने पर भो साधु केवल ममत्व के अभाव के कारण अपरिग्रही होता है । यदि किसी साधु में इनके प्रति ममता है, आसक्ति है, तो फिर वह अपरिग्रही नहीं कला सकता, चाहे उसका वेष कुछ भी क्यों न हो।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org